Tuesday, May 6, 2008

बुझती लौ

सालो पहले किसी ने मुझसे एक सवाल पूछा था ... अगर भीड़ मे से आकर कोई लड़का तुम्हारा हाथ पकड़ ले तो तुम क्या करोगी? तुम्हारी प्रतिक्रिया क्या होगी? सवाल सीधा था ... पर शायद इतना सीधा भी नही था ... सवाल का मतलब क्या था ये मुझे काफी सालो बाद समझ आया। काफी सालो तक जवाब ढूंढने का प्रयत्न करती रही ... आख़िर एक दिन सवाल का जवाब मुझे एक इंसान के रूप मे मिला। संतोष ... 8-10 साल का मूक-बधिर-आंशिक रूप से अँधा ... पहली बार मिली तो उसने मेरा हाथ पकड़ लिया ... अपनी बात कहने के लिए। आख़िर उसके और उस जैसे लोगो के पास आम आदमी को अपनी बात कहने के लिए यही एक जरिया होता है। उनके पास बोलने के लिए सुनने वाले का हाथ और अपनी उंगलियाँ होती है ... जिस से वो एक एक शब्द हाथों पर लिखकर बताते है।

इतना कुछ नही होने के बावजूद संतोष अपनी जिंदगी से खुश है, उसे किसी से कोई गिला शिकवा नही है। उसकी आंखो कि रौशनी कम जरूर है पर चमक कही ज्यादा है। वो एक स्वयंसेवी संस्था के यहाँ रहता है ... वही उसकी पढ़ाई भी होती है। वहाँ उस के जैसे अनेक बच्चो को देखकर पत्थर का दिल भी रो पड़े। हर किसी जिंदगी के साथ एक दर्दभरी दास्ताँ जुड़ी हुई है ... पर फिर भी उनके होठो की मुस्कान बरक़रार है।

संतोष की कहानी भी कुछ ऐसी ही है ... जिसे सुनकर ना सिर्फ़ दिल रो पड़ता है बल्कि अपनी बेबसी पर भी तरस आता है। संतोष एक गरीब परिवार से है। उसके परिवार मे माँ-बाप, एक बहन और एक बड़ा भाई है। बड़ा भाई उसके साथ ही पढता है ... वो भी संतोष की तरह मूक-बधिर और आंशिक रूप से अँधा है। दोनों भाई इतना कुछ नही होने के बावजूद खुशमिजाज है ... जिंदगी जीने को आतुर और सब कुछ जानने को जिज्ञासु है। दोनों ही वहाँ की रौनक है ... पर ये रौनक कब तक कायम रहेगी पता नही, शायद जल्दी ही उनकी आंखो की चमक भी खत्म हो जाए।

नरेश, संतोष का बड़ा भाई, को एक बीमारी है जिसमे इंसान का वजन खासतौर से पैरो का वजन कम होता जाता है। धीरे - धीरे इन्सान बिस्तर पर आ जाता है, साथ ही आंखो की रौशनी भी जाती रहती है। इस दर्दनाक सफर का अंत कभी 2-3 साल मे तो कभी 5-6 साल मे खत्म होता है और वो भी इंसान की मौत के साथ। अभी तक इस बीमारी का इलाज भी नही मिला है। संतोष को भी बीमारी होने का खतरा है। पर उसे ये बीमारी है या नही ये तो मेडिकल टेस्ट के बाद ही पता चलेगा। अपने भाई की जिंदगी की बुझती लौ के बारे मे उसे कुछ-कुछ पता है जिस से कभी-कभी वो विचलित भी हो जाता है। शायद अपने बारे मे भी उसे अंदेशा है ... पर उस से उसे कुछ फर्क नही पड़ता ... अभी तो वो पूरी तरह जिंदगी जी लेना चाहता है।

वो खुश है ... पर कब ये खुशी गायब हो जाए किसी को नही पता ... उसे देखकर मुझे अपनी, मेडिकल जगत की बेबसी पर रोना आता है ... जो कुछ नही कर सकता। इश्वर ने संतोष और नरेश को बनाया लोगो की जिंदगी खुशियों से भरने को पर वो भूल गया इन कृतियों की जिंदगी मे रौशनी और रंग भरना। पर शायद इस के जरिये इश्वर इंसान को बताना चाहता है की अब भी सब कुछ इंसान के हाथ मे नही है और शायद यह भी की जिंदगी जीने के लिए और खुश रहने के लिए सही रवैया चाहिए होता है।

2 comments:

Raj said...

Ruchi,
I appreciate your sense for humanity but by saying this you can not refuse the work of many greatest beings for present medical science. Your article is nothing more then an emotional immaturity. I want to make one point very clear, Most of the discoveries that revolutionized medicine have come about during this century, particularly during the last half. Procedures that have become routine, such as open heart surgery, organ transplantation, hip replacement, mammography, and endoscopy, have been explored and perfected only during the last 50 years.
Since 1900, the average life span for persons in the US has increased by more than 30 years.
So my suggestion to you (may be little harsh), do not get disappointed by seeing such cases, however you should judge yourself what are your contributions to science and technology.

Regards,
Raj

Ruchi said...

i agree to ur point tht science has done alot .. n now saving lives ... but it also has limitation n in this post i m not criticising anybody or medical science ...
thanxx 4 suggestion ...