Friday, September 12, 2008

कल और आज

कई बार उन्हें देखकर या उनके बर्ताव को देखकर लगता इतनी बड़ी है वो हमसे क्या इतना भी नही समझती कि क्या करना चाहिए या क्या नही। हमसे उम्र में, अनुभव में हर चीज़ में तो बड़ी है वो, क्या इस उम्र में भी उन्हें हम समझाए कि ऐसे मत करिए, यहाँ मत बोलिए ... जिंदगी के हर रंग को वो देख चुकी है और अब उनके जीवन की सांझ है पर उनकी हरकते ... बिल्कुल बच्चो जैसी। कई बार तो उन पर गुस्सा भी आता तो कई बार ख़ुद पर गुस्सा आता आख़िर वो इतनी बड़ी है और मैं उनके प्रति इस तरह के भाव रखती हूँ।

शायद ये समस्या मेरी ही नही ... मेरे जैसे अनेक लोगो की है और उस समस्या का समाधान करने की जगह सबने "Generation Gap" बोलकर समस्या को अपना लिया या फिर अपनी अपनी सुविधा या बहाने के लिए एक नया नाम दे दिया। अपने बूढे रिश्तेदारो पर खीझते हुए आख़िर मुंह से निकल ही पड़ता है " इतने बड़े हो गए पर बचपना नही गया ... " ... पर कभी हमने ये नही सोचा की बुढापा दूसरा बचपन ही तो है ...

शाम को ढलता हुआ सूरज और सुबह का सूरज दोनों में ही तेज़ कम होता है, दोनों में ही सूरज की आग नही, जीवन की लालिमा और शीतलता होती है ... एक तेज़ की और बढ़ता है ... और एक निस्तेज होने को होता है ... पर कुछ समय के लिए दोनों एक समान होते है।

बुढापे तक आते-आते जीवन के हर अनुभव को जी चुके इंसान के लिए हम मान लेते है की उन्हें सब आता है, किसी चीज़ की जरुरत नही है और अकेला छोड़ देते है या साथ रहते हुए भी अपनी मसरूफियत के चलते उन्हें अकेला छोड़ देते है। हम भूल जाते है की ये पड़ाव बचपन की तरह ही होता है ... जहाँ प्यार, सामाजिक सुरक्षा की उतनी ही जरूरत होती है जितनी की एक बच्चे को। इन सबके साथ ही जरूरत होती है सम्मान और अपनेपन की ... पर हम मान के चलते है की ये सब तो इन्हे मिल ही रहा है फिर क्या ... । पर कभी कभी हम ये सब भूल जाते है ... भूल जाते है की उनको इन सबकी जरूरत है ... और फिर जब समस्या खड़ी होती है तो "Generation Gap" बोलकर किनारा कर लेते है।

आज भी ऐसा ही एक वाकया हुआ ... उनकी हरकत देखकर लगा क्या है ये ... उन्हें अपने सम्मान, अपनी उम्र का भी ख्याल नही है, जो हर बात में बच्चो जैसे मचल उठती है ... पर तभी मुझे अपने बचपन की याद आ गई। अपने नाना-नानी के साथ बीते हुए पल जैसे मेरी आंखों के सामने आ गए। उनसे मिलने बहुत बार अकेले ही चला जाया करती थी, मेरे घर से स्कूल के रास्ते में ही रहते थे। हर चीज़ थी उनके पास, कोई कमी नही, भरा-पूरा परिवार, पर फिर भी मुझे याद करती रहती थी ... मुझे भी उनसे मिलना अच्छा लगता था। मुझे देखते ही उनके चेहरे पर चमक आ जाया करती थी। फिर एक घंटा कैसे बीतता पता ही न चलता था। ज्यादातर वो ही बोलती थी, क्या बोलती थी ... पता नही ... शायद बातें समझने के लिए मेरी उम्र बहुत कम थी ... पर उन्हें बताना अच्छा लगता था यही काफी था मेरे लिए।

पर आज मैं देखती हूँ तो लगता है क्या हो गया है मुझे ... अपने आज में मैं कल के बीते हुए आज को अपना नही रही हूँ ... और ऊपर से नही अपनाने के लिए "Generation Gap", "Society Respect", "Status" जैसे फालतू बहाने खोजती हूँ। पर इतना सब होते हुए भी जब वो मुझे एक मासूम मुस्कान के साथ मिठाई देती है तो समझ नही आता क्या कहूं उनसे और अपने आप से ...