Saturday, August 16, 2008

नींद

"रात में कम से कम 6 घंटे सोया करो ... इतना कम सोओगी तो जल्दी ही बीमार पड़ जोगी ... आगे चलकर तुम्हे इसके नुकसान झेलने पड़ेंगे ... ।" ये सलाह थी मेरे दोस्त की मुझे। सही ही है आख़िर 6 घंटे की नींद तो चाहिए ही ... पर एक माँ ... वो तो अपने बच्चो के लिए अपनी नींद न्यौछावर करती है। बच्चे की बंद आँखों में सपना चलता रहे इसके लिए रात भर अपनी आँखे खुली रख कर पहरेदारी करती है। बच्चो की मुस्कान से जिंदगी की वीरानियों को भरने की कोशिश करती है।

बच्चो के लिए रातों की नींद छोड़ने वाली माँए तो बहुत देखी पर दिन का चैन, अपनी जिंदगी ... सब कुछ बच्चो के नाम करने वाली माँ पहली बार देखी। चेहरे पर सदाबहार मुस्कान देखकर तो कभी एहसास ही नही होगा की इनकी जिंदगी इतनी वीरान है। मैं पहली बार उनसे करीब 7-8 महीने पहले मिली थी। उनकी मुस्कान ने मुझे पहली बार में ही उनके करीब ला दिया था। भोला-भाला चेहरा जिस पर थकान की एक लकीर तक नही, शिकन तो जैसे उनको कभी छुई ही नही हो।

जब से उन्हें देखा तब से काम करते ही देखा ... दिन हो या रात ... सोचती आख़िर 6 घंटे की नींद तो इन्हे भी चाहिए ... फिर ये सोती कब है। एक दिन जब मैंने उन्हें रात की ड्यूटी के वक्त नींद से लड़ते देखा तो पूछ ही लिया "आप सोते कब हो?" जवाब मिला - "आज घर पर काम था इसलिए सो नही पाई ... इसलिए अभी नींद आ रही है ... "। मैंने कहा तो सो जाओ थोडी देर ... कोई और नही है क्या साथ में ड्यूटी के लिए ... "नही कोई नही ... मैं अकेली ... सो नही सकती ... रात को चैकिंग के लिए आते है बार-बार ... जागते हुए मिले तो डायरी में लिखते अच्छा काम ... सोते मिले तो डायरी में लिखते ... सोऊं कैसे ... " और फिर वही मुस्कान । मैं भी हंसकर सोने चली आई। सुबह उठी तो देखा फिर वो काम कर रही है ... आख़िर इतना काम करने की जरूरत क्या है ... । सोचा आज रात को पूछूंगी।

रात को जब वो ड्यूटी पर आई तो मेरे सवालो का सिलसिला शुरू हो गया।

"घर में कौन-कौन है ... " "एक बेटा, एक बेटी और उनकी दादी ... बेटा आठवी में, बेटी सातवी में ..."

"और पति ... " "पति नही है ... चार साल पहले दुर्घटना में ..."

सुनकर एक धक्का सा लगा ... आगे क्या कहूँ कुछ समझ नही आया। इतनी सी उम्र और ... । पर उनकी मुस्कान ने मुझे वापस स्वभाविक किया। अब तक मुझे समझ आ गया था उनकी मेंहनत का कारन।

"पति की पेंशन भी नही ... रात को ड्यूटी में तीन हज़ार मिलते है ... पहले दिन में काम था तब दो हज़ार मिलते थे ... बाद में पता चला रात की ड्यूटी में ज्यादा मिलते है ... इसलिए रात में ड्यूटी करती हूँ ... दिन में पार्ट-टाइम में तेरह सौ ... कुल चार हज़ार तीन सौ ... परिवार का खर्चा मेरे ऊपर है ... खाना, स्कूल की फीस सब ... ।"

हजारो रुपये खर्च करने वाली मैं शायद सब हिसाब-किताब कर के भी समझ नही पा रही थी की आख़िर चार हज़ार तीन सौ में चार लोगो का खर्चा कैसे चलता होगा। अपने अकाउन्ट्स के ज्ञान को फेल हो जाने पर आख़िर मैंने पूछ ही लिया तो जवाब मिला
"चलाना पड़ता है ... बच्चे अच्छा पढ़ जाए काफ़ी है ... । "

तभी मुझे वो प्रशन याद आया जिसके लिए मैं यहाँ आई थी ..."आप सोती कब है ... " "जब पार्ट-टाइम के लिए आती हूँ तब दिन में दो से चार बजे ... नही तो दिन भर ... "

जितने स्वभाविक तरीके से वो बता रही थी शायद उतना ही उनकी बातें सुनने के बाद मैं अस्वभाविक होती जा रही थी। उनके हर एक शब्द से जिंदगी की क्रूर सच्चाइयों से सामना हो रहा था मेरा ... जो इस से पहले शायद मैंने रुपहले परदे पर ही देखा था। पर अभी भी बहुत कुछ बाकी था।

"आगे का क्या सोचा है ... जब बच्चे बड़े हो जायेंगे ... " "तब तो वो कमाने लग जायेंगे ... "

"मेरा मतलब है जब बच्चे आगे पढने जायेंगे ... तब पैसे कहाँ से आयेंगे ..."

सवाल सुनकर वो सोच में पड़ गई और वही से आवाज़ आई "पता नही ..." मुस्कान अब भी बरकरार थी ... पर अब आँखों में भविष्य की चिंता ... सपने ... और भी पता नही क्या-क्या था ... पर कुछ नही था तो वो थी नींद।

अपनी जिंदगी को तो वो वीरानी में काट रही है पर बच्चो की जिंदगी अपने आँचल की घनी छाँव में फलते फूलते देख रही है पर कही न कही ये आशंका जरुर रहती है की कही कोई बेरहम हवा का झोंका आँचल उड़ा के ले गया तो ... या इन नन्हे पौधों के लिए आँचल छोटा पड़ गया तो ... तो कैसे लड़ पाएगी वो इस बेरहम धुप से, हवा से ... अपने नन्हे पौधों के लिए ... कैसे बन पायेंगे वो पेड़ ...

Tuesday, August 12, 2008

तोहफा

प्यार भरा हर तोहफा कीमती होता है और अगर वो माँ के प्यार और ममता से भरा हो तो वो अनमोल हो जाता है। मुझे माँ से कितने ही तोहफे मिले, और हर तोहफे के साथ मेरा माँ से रिश्ता और मजबूत हो जाता है, कारण तोहफे की मेरे जीवन में अहमियत और महत्व है। जब से घर से दूर आई हूँ, तब से हमारी अनकही बातें, हमारी भावनाएं इन्ही तोहफों के जरिये जाहिर होती आई हैं।

इस बार भी घर से लौटी तो बैग खोलते वक्त समाचारपत्र का एक टुकडा मिला ... मतलब एक और तोहफा माँ का मेरे लिए। पूरे उत्साह के साथ खोला ... पर ये क्या ... खोलते ही उत्साह ठंडा भी हो गया ... ख़ुद पर क्रोध भी आया। समझ न आया क्या कहूँ मम्मी को। वो "सहनशीलता" पर एक लेख था ... मुझे लगा घर पर रहने के दौरान एक दिन जब मुझे क्रोध आया था उस वजह से मम्मी ने ये लेख मुझे दिया है। मुझे अपनी गलती पर पश्चाताप होने लगा।

पूरी रात सोचती रही, आख़िर दुसरे दिन मम्मी से बात की ... तोहफे के लिए धन्यवाद दिया और अपनी गलती मानी। इस पर मम्मी ने कहा - "ये लेख मैंने तुम्हे तुम्हारी गलती बताने के लिए नही भेजा बल्कि इसलिए भेजा की इसे पढो, समझो और जिंदगी में उतारने की कोशिश करो ताकि जिंदगी में गलतियाँ न हो ... ।" वाकई में इस से बड़ा तोहफा क्या होगा।

दुनिया में माँ सबकी अच्छी होती है, प्यार से भरी ... कुछ अपने बच्चो को ग़लत करने से रोकती है, तो कुछ सही-ग़लत समझाती है, कुछ अपने बच्चो की गलतियों पर परदा डालती है, तो कुछ बच्चो को ग़लत करने पर सही करने का रास्ता बताती हैं। पर मेरी माँ ... उन्होंने मुझे उंगली पकड़ चलना सिखाया और जब चलना आ गया तो फिर मुझे ख़ुद रास्ता चुनने के लिए छोड़ दिया। आज भी जब मैं गलती करती हूँ तो वो मुझे ये नही बोलती की तुम ग़लत हो, बल्कि मुझे हर पहलू से सोचने पर मजबूर कर देती है। इसके मंथन के निष्कर्ष में अगर मैं हर पहलू से सही हूँ तो ठीक ... अगर एक भी पहलू से ग़लत हूँ तो मतलब मैंने कही न कही गलती की है। बहुत बार लोग अपने पहलू को देखकर ख़ुद को सही और बाकी सबको ग़लत बताते है ... पर माँ ने मुझे दोनों पहलू देखना सिखाया है ... वो पहलू भी जहाँ से आपको अपनी गलतियाँ नज़र आए।

उनके ऐसे कितने तोहफे हैं जिन्होंने मेरे रास्ते में सूरज तो नही पर दीपक का काम किया है ... उस दीपक को लेकर सूरज की रौशनी में पहुँचने का काम उन्होंने मेरे ऊपर छोड़ दिया है। सिर्फ़ मेरी गलतियाँ ही नही ... मेरा हौसला, मेरा आत्मविश्वास बढाया हैं उनके तोहफों ने ... हमारी अनकही बातो को जाहिर किया है ... दूर होने के बावजूद हमे ही लाये हैं ... और जब कभी अकेली हुई तो उनकी परछाई को अपने अपने पास पाया है ... उनके तोहफों में ...

मुझे इंतज़ार रहेगा माँ आपके तोहफों का हमेशा ...