Friday, June 13, 2008

परछाई

"मेरे दोस्त कि सोच मुझसे कितनी मिलती है ... "
" वो मेरे जैसा नही है इसलिए हमारा रिश्ता आगे नही बढ़ पाया ... "
इस भागती-दौड़ती जिंदगी में अगर कोई हमारे सम्पर्क में आता है तो उसकी सोच हमारी जैसी होनी चाहिए और नही है तो उसे हम अपना जैसा बनाने में जुट जाते है।

ऐसे तर्क-वितर्क बहुत आम हो चले है पर क्या ऐसा नही लगता कि इन तर्क-वितर्को के जरिये हम अपनी परछाई खोज रहे है ... सबको अपने जैसा बनाने देना चाहते है। ऐसे में "वो मेरे जैसा नही ... उसकी सोच, पसंद-नापसंद मेरे जैसी नही तो दोस्ती कैसी ..." जैसे वाक्य किसी इंसान को दोस्त बनाने के लिए तराजू का काम करते है। और अगर फिर भी किसी से दोस्ती हो जाए जो आपके जैसा नही हो तो उस पर अपने विचार थोपने चालू कर दिए जाते है जब तक कि अन्तर कम न हो जाए। ये सिलसिला सिर्फ़ दोस्ती में ही नही बल्कि अपने सम्पर्क मे आने वाले हर इंसान के लिए होता है। हर इंसान को हम अपनी परछाई बना देना चाहते है। सामने वाले कि पसंद, पसंद नही बकवास है, उसकी सोच ग़लत है ... पर कही इस सोच के जरिये हम अपना नजरिया, अपने दिमाग कि खिड़कियाँ बंद तो नही कर रहे?

हर इंसान कि सोच अलग होती है शायद इसलिए कि हम हर पहलू से जिंदगी देखे। अपनी सोच, अपनी पसंद-नापसंद किसी और पर थोपकर हम कही जिंदगी के रंग तो नही मिटा रहे है। जिंदगी शायद इतनी रंगीन इसलिए ही है क्योंकि यहाँ हर इंसान दुसरे इंसान से अलग है।

अपनी पसंद, अपने विचार दूसरो पर थोपने के बजाय उनके विचारों, उनकी पसंद का सम्मान कीजिये, अपनी परछाई खोजने कि बजाय एक दोस्त खोजिये ... फिर देखिये जिंदगी में कितने रंग घुलते है ...