Friday, September 12, 2008

कल और आज

कई बार उन्हें देखकर या उनके बर्ताव को देखकर लगता इतनी बड़ी है वो हमसे क्या इतना भी नही समझती कि क्या करना चाहिए या क्या नही। हमसे उम्र में, अनुभव में हर चीज़ में तो बड़ी है वो, क्या इस उम्र में भी उन्हें हम समझाए कि ऐसे मत करिए, यहाँ मत बोलिए ... जिंदगी के हर रंग को वो देख चुकी है और अब उनके जीवन की सांझ है पर उनकी हरकते ... बिल्कुल बच्चो जैसी। कई बार तो उन पर गुस्सा भी आता तो कई बार ख़ुद पर गुस्सा आता आख़िर वो इतनी बड़ी है और मैं उनके प्रति इस तरह के भाव रखती हूँ।

शायद ये समस्या मेरी ही नही ... मेरे जैसे अनेक लोगो की है और उस समस्या का समाधान करने की जगह सबने "Generation Gap" बोलकर समस्या को अपना लिया या फिर अपनी अपनी सुविधा या बहाने के लिए एक नया नाम दे दिया। अपने बूढे रिश्तेदारो पर खीझते हुए आख़िर मुंह से निकल ही पड़ता है " इतने बड़े हो गए पर बचपना नही गया ... " ... पर कभी हमने ये नही सोचा की बुढापा दूसरा बचपन ही तो है ...

शाम को ढलता हुआ सूरज और सुबह का सूरज दोनों में ही तेज़ कम होता है, दोनों में ही सूरज की आग नही, जीवन की लालिमा और शीतलता होती है ... एक तेज़ की और बढ़ता है ... और एक निस्तेज होने को होता है ... पर कुछ समय के लिए दोनों एक समान होते है।

बुढापे तक आते-आते जीवन के हर अनुभव को जी चुके इंसान के लिए हम मान लेते है की उन्हें सब आता है, किसी चीज़ की जरुरत नही है और अकेला छोड़ देते है या साथ रहते हुए भी अपनी मसरूफियत के चलते उन्हें अकेला छोड़ देते है। हम भूल जाते है की ये पड़ाव बचपन की तरह ही होता है ... जहाँ प्यार, सामाजिक सुरक्षा की उतनी ही जरूरत होती है जितनी की एक बच्चे को। इन सबके साथ ही जरूरत होती है सम्मान और अपनेपन की ... पर हम मान के चलते है की ये सब तो इन्हे मिल ही रहा है फिर क्या ... । पर कभी कभी हम ये सब भूल जाते है ... भूल जाते है की उनको इन सबकी जरूरत है ... और फिर जब समस्या खड़ी होती है तो "Generation Gap" बोलकर किनारा कर लेते है।

आज भी ऐसा ही एक वाकया हुआ ... उनकी हरकत देखकर लगा क्या है ये ... उन्हें अपने सम्मान, अपनी उम्र का भी ख्याल नही है, जो हर बात में बच्चो जैसे मचल उठती है ... पर तभी मुझे अपने बचपन की याद आ गई। अपने नाना-नानी के साथ बीते हुए पल जैसे मेरी आंखों के सामने आ गए। उनसे मिलने बहुत बार अकेले ही चला जाया करती थी, मेरे घर से स्कूल के रास्ते में ही रहते थे। हर चीज़ थी उनके पास, कोई कमी नही, भरा-पूरा परिवार, पर फिर भी मुझे याद करती रहती थी ... मुझे भी उनसे मिलना अच्छा लगता था। मुझे देखते ही उनके चेहरे पर चमक आ जाया करती थी। फिर एक घंटा कैसे बीतता पता ही न चलता था। ज्यादातर वो ही बोलती थी, क्या बोलती थी ... पता नही ... शायद बातें समझने के लिए मेरी उम्र बहुत कम थी ... पर उन्हें बताना अच्छा लगता था यही काफी था मेरे लिए।

पर आज मैं देखती हूँ तो लगता है क्या हो गया है मुझे ... अपने आज में मैं कल के बीते हुए आज को अपना नही रही हूँ ... और ऊपर से नही अपनाने के लिए "Generation Gap", "Society Respect", "Status" जैसे फालतू बहाने खोजती हूँ। पर इतना सब होते हुए भी जब वो मुझे एक मासूम मुस्कान के साथ मिठाई देती है तो समझ नही आता क्या कहूं उनसे और अपने आप से ...

Saturday, August 16, 2008

नींद

"रात में कम से कम 6 घंटे सोया करो ... इतना कम सोओगी तो जल्दी ही बीमार पड़ जोगी ... आगे चलकर तुम्हे इसके नुकसान झेलने पड़ेंगे ... ।" ये सलाह थी मेरे दोस्त की मुझे। सही ही है आख़िर 6 घंटे की नींद तो चाहिए ही ... पर एक माँ ... वो तो अपने बच्चो के लिए अपनी नींद न्यौछावर करती है। बच्चे की बंद आँखों में सपना चलता रहे इसके लिए रात भर अपनी आँखे खुली रख कर पहरेदारी करती है। बच्चो की मुस्कान से जिंदगी की वीरानियों को भरने की कोशिश करती है।

बच्चो के लिए रातों की नींद छोड़ने वाली माँए तो बहुत देखी पर दिन का चैन, अपनी जिंदगी ... सब कुछ बच्चो के नाम करने वाली माँ पहली बार देखी। चेहरे पर सदाबहार मुस्कान देखकर तो कभी एहसास ही नही होगा की इनकी जिंदगी इतनी वीरान है। मैं पहली बार उनसे करीब 7-8 महीने पहले मिली थी। उनकी मुस्कान ने मुझे पहली बार में ही उनके करीब ला दिया था। भोला-भाला चेहरा जिस पर थकान की एक लकीर तक नही, शिकन तो जैसे उनको कभी छुई ही नही हो।

जब से उन्हें देखा तब से काम करते ही देखा ... दिन हो या रात ... सोचती आख़िर 6 घंटे की नींद तो इन्हे भी चाहिए ... फिर ये सोती कब है। एक दिन जब मैंने उन्हें रात की ड्यूटी के वक्त नींद से लड़ते देखा तो पूछ ही लिया "आप सोते कब हो?" जवाब मिला - "आज घर पर काम था इसलिए सो नही पाई ... इसलिए अभी नींद आ रही है ... "। मैंने कहा तो सो जाओ थोडी देर ... कोई और नही है क्या साथ में ड्यूटी के लिए ... "नही कोई नही ... मैं अकेली ... सो नही सकती ... रात को चैकिंग के लिए आते है बार-बार ... जागते हुए मिले तो डायरी में लिखते अच्छा काम ... सोते मिले तो डायरी में लिखते ... सोऊं कैसे ... " और फिर वही मुस्कान । मैं भी हंसकर सोने चली आई। सुबह उठी तो देखा फिर वो काम कर रही है ... आख़िर इतना काम करने की जरूरत क्या है ... । सोचा आज रात को पूछूंगी।

रात को जब वो ड्यूटी पर आई तो मेरे सवालो का सिलसिला शुरू हो गया।

"घर में कौन-कौन है ... " "एक बेटा, एक बेटी और उनकी दादी ... बेटा आठवी में, बेटी सातवी में ..."

"और पति ... " "पति नही है ... चार साल पहले दुर्घटना में ..."

सुनकर एक धक्का सा लगा ... आगे क्या कहूँ कुछ समझ नही आया। इतनी सी उम्र और ... । पर उनकी मुस्कान ने मुझे वापस स्वभाविक किया। अब तक मुझे समझ आ गया था उनकी मेंहनत का कारन।

"पति की पेंशन भी नही ... रात को ड्यूटी में तीन हज़ार मिलते है ... पहले दिन में काम था तब दो हज़ार मिलते थे ... बाद में पता चला रात की ड्यूटी में ज्यादा मिलते है ... इसलिए रात में ड्यूटी करती हूँ ... दिन में पार्ट-टाइम में तेरह सौ ... कुल चार हज़ार तीन सौ ... परिवार का खर्चा मेरे ऊपर है ... खाना, स्कूल की फीस सब ... ।"

हजारो रुपये खर्च करने वाली मैं शायद सब हिसाब-किताब कर के भी समझ नही पा रही थी की आख़िर चार हज़ार तीन सौ में चार लोगो का खर्चा कैसे चलता होगा। अपने अकाउन्ट्स के ज्ञान को फेल हो जाने पर आख़िर मैंने पूछ ही लिया तो जवाब मिला
"चलाना पड़ता है ... बच्चे अच्छा पढ़ जाए काफ़ी है ... । "

तभी मुझे वो प्रशन याद आया जिसके लिए मैं यहाँ आई थी ..."आप सोती कब है ... " "जब पार्ट-टाइम के लिए आती हूँ तब दिन में दो से चार बजे ... नही तो दिन भर ... "

जितने स्वभाविक तरीके से वो बता रही थी शायद उतना ही उनकी बातें सुनने के बाद मैं अस्वभाविक होती जा रही थी। उनके हर एक शब्द से जिंदगी की क्रूर सच्चाइयों से सामना हो रहा था मेरा ... जो इस से पहले शायद मैंने रुपहले परदे पर ही देखा था। पर अभी भी बहुत कुछ बाकी था।

"आगे का क्या सोचा है ... जब बच्चे बड़े हो जायेंगे ... " "तब तो वो कमाने लग जायेंगे ... "

"मेरा मतलब है जब बच्चे आगे पढने जायेंगे ... तब पैसे कहाँ से आयेंगे ..."

सवाल सुनकर वो सोच में पड़ गई और वही से आवाज़ आई "पता नही ..." मुस्कान अब भी बरकरार थी ... पर अब आँखों में भविष्य की चिंता ... सपने ... और भी पता नही क्या-क्या था ... पर कुछ नही था तो वो थी नींद।

अपनी जिंदगी को तो वो वीरानी में काट रही है पर बच्चो की जिंदगी अपने आँचल की घनी छाँव में फलते फूलते देख रही है पर कही न कही ये आशंका जरुर रहती है की कही कोई बेरहम हवा का झोंका आँचल उड़ा के ले गया तो ... या इन नन्हे पौधों के लिए आँचल छोटा पड़ गया तो ... तो कैसे लड़ पाएगी वो इस बेरहम धुप से, हवा से ... अपने नन्हे पौधों के लिए ... कैसे बन पायेंगे वो पेड़ ...

Tuesday, August 12, 2008

तोहफा

प्यार भरा हर तोहफा कीमती होता है और अगर वो माँ के प्यार और ममता से भरा हो तो वो अनमोल हो जाता है। मुझे माँ से कितने ही तोहफे मिले, और हर तोहफे के साथ मेरा माँ से रिश्ता और मजबूत हो जाता है, कारण तोहफे की मेरे जीवन में अहमियत और महत्व है। जब से घर से दूर आई हूँ, तब से हमारी अनकही बातें, हमारी भावनाएं इन्ही तोहफों के जरिये जाहिर होती आई हैं।

इस बार भी घर से लौटी तो बैग खोलते वक्त समाचारपत्र का एक टुकडा मिला ... मतलब एक और तोहफा माँ का मेरे लिए। पूरे उत्साह के साथ खोला ... पर ये क्या ... खोलते ही उत्साह ठंडा भी हो गया ... ख़ुद पर क्रोध भी आया। समझ न आया क्या कहूँ मम्मी को। वो "सहनशीलता" पर एक लेख था ... मुझे लगा घर पर रहने के दौरान एक दिन जब मुझे क्रोध आया था उस वजह से मम्मी ने ये लेख मुझे दिया है। मुझे अपनी गलती पर पश्चाताप होने लगा।

पूरी रात सोचती रही, आख़िर दुसरे दिन मम्मी से बात की ... तोहफे के लिए धन्यवाद दिया और अपनी गलती मानी। इस पर मम्मी ने कहा - "ये लेख मैंने तुम्हे तुम्हारी गलती बताने के लिए नही भेजा बल्कि इसलिए भेजा की इसे पढो, समझो और जिंदगी में उतारने की कोशिश करो ताकि जिंदगी में गलतियाँ न हो ... ।" वाकई में इस से बड़ा तोहफा क्या होगा।

दुनिया में माँ सबकी अच्छी होती है, प्यार से भरी ... कुछ अपने बच्चो को ग़लत करने से रोकती है, तो कुछ सही-ग़लत समझाती है, कुछ अपने बच्चो की गलतियों पर परदा डालती है, तो कुछ बच्चो को ग़लत करने पर सही करने का रास्ता बताती हैं। पर मेरी माँ ... उन्होंने मुझे उंगली पकड़ चलना सिखाया और जब चलना आ गया तो फिर मुझे ख़ुद रास्ता चुनने के लिए छोड़ दिया। आज भी जब मैं गलती करती हूँ तो वो मुझे ये नही बोलती की तुम ग़लत हो, बल्कि मुझे हर पहलू से सोचने पर मजबूर कर देती है। इसके मंथन के निष्कर्ष में अगर मैं हर पहलू से सही हूँ तो ठीक ... अगर एक भी पहलू से ग़लत हूँ तो मतलब मैंने कही न कही गलती की है। बहुत बार लोग अपने पहलू को देखकर ख़ुद को सही और बाकी सबको ग़लत बताते है ... पर माँ ने मुझे दोनों पहलू देखना सिखाया है ... वो पहलू भी जहाँ से आपको अपनी गलतियाँ नज़र आए।

उनके ऐसे कितने तोहफे हैं जिन्होंने मेरे रास्ते में सूरज तो नही पर दीपक का काम किया है ... उस दीपक को लेकर सूरज की रौशनी में पहुँचने का काम उन्होंने मेरे ऊपर छोड़ दिया है। सिर्फ़ मेरी गलतियाँ ही नही ... मेरा हौसला, मेरा आत्मविश्वास बढाया हैं उनके तोहफों ने ... हमारी अनकही बातो को जाहिर किया है ... दूर होने के बावजूद हमे ही लाये हैं ... और जब कभी अकेली हुई तो उनकी परछाई को अपने अपने पास पाया है ... उनके तोहफों में ...

मुझे इंतज़ार रहेगा माँ आपके तोहफों का हमेशा ...

Friday, June 13, 2008

परछाई

"मेरे दोस्त कि सोच मुझसे कितनी मिलती है ... "
" वो मेरे जैसा नही है इसलिए हमारा रिश्ता आगे नही बढ़ पाया ... "
इस भागती-दौड़ती जिंदगी में अगर कोई हमारे सम्पर्क में आता है तो उसकी सोच हमारी जैसी होनी चाहिए और नही है तो उसे हम अपना जैसा बनाने में जुट जाते है।

ऐसे तर्क-वितर्क बहुत आम हो चले है पर क्या ऐसा नही लगता कि इन तर्क-वितर्को के जरिये हम अपनी परछाई खोज रहे है ... सबको अपने जैसा बनाने देना चाहते है। ऐसे में "वो मेरे जैसा नही ... उसकी सोच, पसंद-नापसंद मेरे जैसी नही तो दोस्ती कैसी ..." जैसे वाक्य किसी इंसान को दोस्त बनाने के लिए तराजू का काम करते है। और अगर फिर भी किसी से दोस्ती हो जाए जो आपके जैसा नही हो तो उस पर अपने विचार थोपने चालू कर दिए जाते है जब तक कि अन्तर कम न हो जाए। ये सिलसिला सिर्फ़ दोस्ती में ही नही बल्कि अपने सम्पर्क मे आने वाले हर इंसान के लिए होता है। हर इंसान को हम अपनी परछाई बना देना चाहते है। सामने वाले कि पसंद, पसंद नही बकवास है, उसकी सोच ग़लत है ... पर कही इस सोच के जरिये हम अपना नजरिया, अपने दिमाग कि खिड़कियाँ बंद तो नही कर रहे?

हर इंसान कि सोच अलग होती है शायद इसलिए कि हम हर पहलू से जिंदगी देखे। अपनी सोच, अपनी पसंद-नापसंद किसी और पर थोपकर हम कही जिंदगी के रंग तो नही मिटा रहे है। जिंदगी शायद इतनी रंगीन इसलिए ही है क्योंकि यहाँ हर इंसान दुसरे इंसान से अलग है।

अपनी पसंद, अपने विचार दूसरो पर थोपने के बजाय उनके विचारों, उनकी पसंद का सम्मान कीजिये, अपनी परछाई खोजने कि बजाय एक दोस्त खोजिये ... फिर देखिये जिंदगी में कितने रंग घुलते है ...

Tuesday, May 6, 2008

बुझती लौ

सालो पहले किसी ने मुझसे एक सवाल पूछा था ... अगर भीड़ मे से आकर कोई लड़का तुम्हारा हाथ पकड़ ले तो तुम क्या करोगी? तुम्हारी प्रतिक्रिया क्या होगी? सवाल सीधा था ... पर शायद इतना सीधा भी नही था ... सवाल का मतलब क्या था ये मुझे काफी सालो बाद समझ आया। काफी सालो तक जवाब ढूंढने का प्रयत्न करती रही ... आख़िर एक दिन सवाल का जवाब मुझे एक इंसान के रूप मे मिला। संतोष ... 8-10 साल का मूक-बधिर-आंशिक रूप से अँधा ... पहली बार मिली तो उसने मेरा हाथ पकड़ लिया ... अपनी बात कहने के लिए। आख़िर उसके और उस जैसे लोगो के पास आम आदमी को अपनी बात कहने के लिए यही एक जरिया होता है। उनके पास बोलने के लिए सुनने वाले का हाथ और अपनी उंगलियाँ होती है ... जिस से वो एक एक शब्द हाथों पर लिखकर बताते है।

इतना कुछ नही होने के बावजूद संतोष अपनी जिंदगी से खुश है, उसे किसी से कोई गिला शिकवा नही है। उसकी आंखो कि रौशनी कम जरूर है पर चमक कही ज्यादा है। वो एक स्वयंसेवी संस्था के यहाँ रहता है ... वही उसकी पढ़ाई भी होती है। वहाँ उस के जैसे अनेक बच्चो को देखकर पत्थर का दिल भी रो पड़े। हर किसी जिंदगी के साथ एक दर्दभरी दास्ताँ जुड़ी हुई है ... पर फिर भी उनके होठो की मुस्कान बरक़रार है।

संतोष की कहानी भी कुछ ऐसी ही है ... जिसे सुनकर ना सिर्फ़ दिल रो पड़ता है बल्कि अपनी बेबसी पर भी तरस आता है। संतोष एक गरीब परिवार से है। उसके परिवार मे माँ-बाप, एक बहन और एक बड़ा भाई है। बड़ा भाई उसके साथ ही पढता है ... वो भी संतोष की तरह मूक-बधिर और आंशिक रूप से अँधा है। दोनों भाई इतना कुछ नही होने के बावजूद खुशमिजाज है ... जिंदगी जीने को आतुर और सब कुछ जानने को जिज्ञासु है। दोनों ही वहाँ की रौनक है ... पर ये रौनक कब तक कायम रहेगी पता नही, शायद जल्दी ही उनकी आंखो की चमक भी खत्म हो जाए।

नरेश, संतोष का बड़ा भाई, को एक बीमारी है जिसमे इंसान का वजन खासतौर से पैरो का वजन कम होता जाता है। धीरे - धीरे इन्सान बिस्तर पर आ जाता है, साथ ही आंखो की रौशनी भी जाती रहती है। इस दर्दनाक सफर का अंत कभी 2-3 साल मे तो कभी 5-6 साल मे खत्म होता है और वो भी इंसान की मौत के साथ। अभी तक इस बीमारी का इलाज भी नही मिला है। संतोष को भी बीमारी होने का खतरा है। पर उसे ये बीमारी है या नही ये तो मेडिकल टेस्ट के बाद ही पता चलेगा। अपने भाई की जिंदगी की बुझती लौ के बारे मे उसे कुछ-कुछ पता है जिस से कभी-कभी वो विचलित भी हो जाता है। शायद अपने बारे मे भी उसे अंदेशा है ... पर उस से उसे कुछ फर्क नही पड़ता ... अभी तो वो पूरी तरह जिंदगी जी लेना चाहता है।

वो खुश है ... पर कब ये खुशी गायब हो जाए किसी को नही पता ... उसे देखकर मुझे अपनी, मेडिकल जगत की बेबसी पर रोना आता है ... जो कुछ नही कर सकता। इश्वर ने संतोष और नरेश को बनाया लोगो की जिंदगी खुशियों से भरने को पर वो भूल गया इन कृतियों की जिंदगी मे रौशनी और रंग भरना। पर शायद इस के जरिये इश्वर इंसान को बताना चाहता है की अब भी सब कुछ इंसान के हाथ मे नही है और शायद यह भी की जिंदगी जीने के लिए और खुश रहने के लिए सही रवैया चाहिए होता है।

Wednesday, April 2, 2008

छोटी सी आशा

आंखों मे चमक लिए, दिल मे उम्मीद और कुछ करने का इरादा लिए कितने लोग हर सुबह इस दुनिया मे उठते है पर कितने ऐसे है जो सूर्यास्त होने पर भी अपनी आशा की रोशनी से अपनी जिंदगी रोशन रखते है सूर्योदय होने तक। बड़े-बड़े लोगो की उम्मीदे धराशायी होती देखी है चट्टानों से टकराकर पर एक नाज़ुक फूल को दुनिया की बेदर्द हवाओं के बीच भी खिलने उम्मीद के साथ देखा मैंने।

नाम पूछना तो मैं भूल ही गई थी उसे देखकर या यो कहूँ उसके इरादों की मजबूती देखकर। 8-10 साल के नन्हे हाथ गोल-गप्पे का ठेला खीचते हुए, दूसरी तरफ़ अपने भाई को सम्हाले हुए अपने इरादों की मजबूती के साथ दुनिया मे अपनी पहचान बनने के लिए बेकरार। उसके मजबूत इरादों की झलक उसकी आवाज़, उसके हाव-भाव मे भी झलक रही थी।

जब उसे ठेला खींचते हुए देखा तो लगा या तो बाप शराब पीता होगा, या बाप छोड़ गया होगा या घर मे पैसो की कमी के कारण उसे ठेला खीचना पड़ रहा है। मानो ऐसा लगा जैसे एक और बचपन शहर की लम्बी सडको पर खत्म हो रहा है। उसकी मासूमियत देखकर रहा नही गया सोचा उसके बारे मे जाना जाय, क्या मजबूरी थी जो एक और बचपन, बचपन की दहलीज़ लांघने के पहले ही प्रौढ़ हो जाना चाहता था या यूं कहूँ प्रौढ़ होने पर मजबूर किया गया था।

उसने अपने मासूम अंदाज़ मे बताना शुरू किया माँ-बाप गाँव मे है। गाँव मे खेती और मजदूरी से थोडी-बहुत कमाई होती है पर वो कमाई उसके सपनो को पूरा करने के लिए कम है। उतनी कमाई से पेट भी जब पूरा नही भरता तो सपने पूरा करने की सोचना भी मुश्किल है। यही सब सोचकर वो यहाँ शहर मे अपने भाई के साथ आ गया। यहाँ ठेले से जो कमाई होती है। उससे वो अपना और अपने भाई का खर्चा उठाता है और कोशिश करता है की कुछ बचाकर घर भी भेज सके।

ये सब जानने के बाद मेरी उत्सुकता और बढ़ गई। मैंने पूछा की क्या सपना है तुम्हारा? उसने बताया की वो पैसा कमाना चाहता है, अच्छा इंसान बनाना चाहता। पैसा कमाकर अपने माँ-बाप के दुःख दूर करना चाहता है। इसके लिए वो पढने भी जाता है "इंग्लिश मीडियम स्कूल" मे। सुबह पढने जाता है उसके बाद ठेला लगाता है और रात मे पढता है। ये सब बताते वक्त उसकी आंखो की चमक और बढ़ गई थी उसमे उसके मजबूत इरादों की झलक और कुछ कर गुजरने की ख्वाहिश थी। ऐसा लगा की शहर की लम्बी सडको पर वो अपना बचपन खोने नही बल्कि अपनी मंजिल का रास्ता तय करने आया है।

मंजिल उसे मिलती है या नही ये तो वक्त ही बतायेगा पर उसकी उम्मीदे, उसका हौसला शायद निराश होने चुके लोगो को रोशनी की किरण सामान लगे। इश्वर से यही प्राथना करुँगी की उस फूल को खिलने दे, जिंदगी की आंधी कही उसे उड़ा कर न ले जाए किसी के पैरो टेल कुचलने को। साथ ही यह भी प्राथना है की और किसी कलि को जिंदगी की धुप मे सुलगने को न छोड।

Friday, March 28, 2008

Charity

"Charity" शब्द सुनते ही मेरे दिमाग मे कुछ विभिन्न प्रकार के श्रेणियों के लोगो, जो की "charity" से जुड़े हुए है, की तस्वीर उभरती हैं। ये लोग निम्न श्रेणी मे से किसी भी प्रकार के हो सकते है -
  • जो ना सिर्फ़ "charity" करते है बल्कि अपनी जिम्मेदारियाँ भी अच्छे से निभाते है
  • जो अपनी जिम्मेदारियाँ तो अच्छे से निभाते है पर "charity" से उनका नाता दूर-दूर तक नही होता
  • जिन लोगो के लिए "charity" की जाती है और वास्तव मे वो "charity" के हकदार भी होते है
  • जो लोग सोचते है की दुसरे उनके लिए "charity" कर देंगे, और लोग उनके लिए "charity" करते भी है जबकि वास्तव मे वो इसके हक़दार नही होते है
  • जो लोग "charity" करने का दावा और दिखावा करते है
  • जो दूसरो के लिए तो "charity" करते है पर उनके ख़ुद के लिए लोगो को "charity" करनी पड़ती है

( हो सकता है शायद कोई श्रेणी मैं भूल गई, उसके लिए आपके सुझाव आमंत्रित है)

पहली तीन श्रेणियां तो "charity" से सीधे-सीधे या तो जुड़ी हुई है या नही। आमतौर पर भारतीय मध्यमवर्गीय परिवार दूसरी श्रेणी मे आते है जिनका "charity" से नाता भिखारी को भीख देने तक सीमित होता है। मैं इन लोगो को "charity" ना करने के लिए कुछ नही कहना चाहती, क्योंकि जिम्मेदारियां पहले होती है और अगर आप इन्हे बखूबी निभाते है तो भी काफी होता है कम से कम आप किसी पर बोझ तो नही बन रहे। तीसरी श्रेणी उन लोगो की है जो वास्तव मे "charity" के हक़दार होते है। यहाँ "charity" का मतलब मदद से है "भीख" से नही।

आखिरी तीन श्रेणियों मे वो प्राणी आते हैं जिनके लिए "charity", "charity" ना होकर मजाक होती है। "charity" शब्द का मतलब उनके लिए या तो अपना उल्लू सीधा करना होता है या "charity" शब्द का मर्म तक उन लोगो को पता नही होता।

कुछ लोग ख़ुद काबिल होते हुए भी सिर्फ़ इसलिए काम नही करते क्योंकि कोई दूसरा आकर उनका काम कर देगा, मतलब उनके लिए "charity" कर देगा। दुसरे लोग भी ये सोचकर उनके लिए "charity" करते है की वो किसी की मदद कर रहे है। पर शायद वो ये भूल जाते है की ऐसी मदद ऐसे लोगो को सिर्फ़ अपंग करती है, और कभी-कभी ये लोग समाज के लिए एक बीमारी बन जाते है। ऐसे लोग आपको हर जगह मिल जायेंगे - रोड पर भिखारी के रूप मे(काम करने के लायक होने के बावजूद इन्हे काम करना पसंद नही, आख़िर "charity" करने वालो की कमी थोड़े ना है इनके लिए), स्कूल-कालेज मे आपके साथी के रूप मे (कभी नोट्स तो कभी आपका गृहकार्य चाहिए होता है इन्हे आपसे), तो कभी दफ्तर मे आपके साथी के रूप मे। इनका अपना काम करवाने का अलग ही अंदाज़ होता है। ये आपके पास ऐसा कातर चेहरा लेकर आयेंगे की देखते ही आपको दया आ जाए और उस से भी ज्यादा कातर इनकी आवाज़ होती है जिसे सुनकर मोम दिल इंसान तो पल मे पिघल जाता है। अगर आप नही पिघले तो इनका दूसरा हथियार तैयार है आपके लिए "emotional blackmailing"। अगर ये भी काम न करे तो अगला हथियार तैयार है "वादा", वादा भविष्य मे आपका काम करने का (?) और अभी अपनी मजबूरी बताके काम नही करने का बहाना देने का। आखिरी हथियार याचना होता है, जो की भीख मांगने जैसा होता है। ऐसे लोगो को देखकर लगता है की इन्हे माँगते हुए शर्म भी आती है, पर नही ये तो वहम है। मांगना तो जैसे इन लोगो ने अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझ लिया है। ऐसे लोगो के लिए "charity" करने का मतलब उन्हें बढावा देने जैसा होता है। ऐसे लोगो के लिए मैं यही कहूँगी -

"Do not do charity for those who are able but not doing just because others will do it for them"

अगली श्रेणी मे आमतौर पर भारतीय ऊचावार्गीय परिवार आते है जो "charity" का मतलब अपना काम करवाने से निकालते है। "charity" उनके लिए एक रास्ता होता है उनकी मंजिल तक पहुँचने के लिए। कोई अपनी काली कमाई को छुपाना चाहता है तो कोई नाम कमाना चाहता है तो कोई अपनी काली करतूत छुपाना चाहता ही तो कोई चुनाव जितना चाहता ही - और इन सबको को पाने के लिए एक सीधा सादा उपाय "charity"।

आखिरी श्रेणी मे वो लोग आते है जो "charity" के नशे मे अपनी जिम्मेदारियों से मुह फेर लेते है। उन्हें अपने काम अपने परिवार से कोई लेना-देना नही होता, उनके लिए "charity" ही एक मात्र लक्ष्य होता है। ये लक्ष्य पाने मे वो कितने कामयाब होते है ये तो पता नही पर हाँ दूसरो को इनके और इनकी जिम्मेदारियों के लिए "charity" करनी पड़ती है। ऐसे लोगो के पास "charity" के लिए हमेशा बड़ी-बड़ी योजनाये होती है पर इसमे से ये कितनी पूरी करवा पाते है ये तो पता नही पर हाँ इन्हे ये नही पता होता घर पर क्या हो रहा है, घर के लिए भी इनकी कुछ जिम्मेदारियों है। घर की जिम्मेदारियाँ पूरा करना न सिर्फ़ उनका दायित्व है बल्कि उसे किए बिना ये सोचना की बाहर की जिम्मेदारियों अहम् है, उनकी गलती है। "charity" करना चाहिए पर जब दूसरो को आपके लिए "charity" करनी पड़ जाए, जब आप ख़ुद "charity" के पात्र हो जाए, तो आप "charity" करने के पात्र कैसे हो सकते है। ऐसे लोगो के लिए किसी ने सही कहा है -

"Charity begins at home, but too much of charity sends you to charity home"

अंत मे मैं सिर्फ़ इतना कहना चाहूंगी की "charity" करने से पहले उसका मतलब समझे, सही इंसान के लिए करे और अपनी जिम्मेदारियों भूल कर ना करे।

Sunday, March 16, 2008

दोयम दर्जा

आज़ादी के पहले अंग्रेजो ने भारतीयों को दोयम दर्जा दे रखा था - अपने देश मे रहते हुए भी भारतीयों को अंग्रेजो के बाद माना जाता था। आज़ादी मिली भारतीयों का दोयम दर्जा खत्म हो गया, वो नागरिक बन गए अपने देश के। पर एक तबका है जिसे आज़ादी के पहले भी और आज़ादी के बाद भी, भारत में भी भारत के बहार भी दोयम दर्जा प्राप्त था और आज भी कायम है - वो तबका है महिलाऐं।

"आज भी महिलाओं को नौकरी मे पुरुषो से ज्यादा संघर्ष करना पड़ता है, बराबरी पाना बहुत ही मुश्किल होता है ..." ये शब्द बहुत बार सुने होंगे पर इस बार ऐसी ही कुछ पीड़ा जाहिर की महिला भारतीय आई.पी.एस. किरण बेदी ने। जब किरण बेदी ने ये महसूस किया है तो भारत के किसी अनजान गाँव मे तो महिलाओं को एक अनंत लड़ाई लड़नी पड़ती होगी ... अपने हक के लिए, अपनी पहचान के लिए ... । आसमान से बातें कर चुकी है महिला ... पर अब भी उन्हें नागरिक नही समझा जाता ... ।

अभी हाल ही मे एक ख़बर छापी (शायद वो ख़बर ही थी) - " एक मुस्लिम देश मे अब महिलाओं को बिना किसी पुरूष संरक्षक साथी के होटल-रेस्तारा जाने की इजाज़त होगी ... ये कदम सरकार ने देश को विकसित देश साबित करने के लिए उठाया ... " ऐसी कितनी ही बंदिशे अब भी मुस्लिम समाज मे है। लोगो का कहना है की ये सब इसलिए है क्योंकि मुस्लिम समाज मे तालीम अब भी कम है। पर अगर दुसरे धर्मो मे भी देखे तो ऐसे विभिन्न उदाहरण मिल जायेंगे। आज भी भारत के कई हिस्सों मे लड़कियों को अकेले बाहर नही जाने दिया जाता फिर चाहे वो अपने 7-8 साल के भाई के साथ ही जाए, परदा प्रथा आज भी कायम है ... ऐसे और भी उदाहरण आपको अपने आस-पास मिल जायेंगे।

बार काउन्सिल मे एक महिला को सिर्फ़ इसलिए प्रवेश नही मिला क्योंकि वो एक महिला है। कही महिलाओं को चुनाव लड़ने का अधिकार नही, तो कही सत्ता मे आने के बाद भी सत्ता चलने का अधिकार नही। सरकार ने महिलाओं को सत्ता मे आने का हक तो दे दिया पर सत्ता करने का हक उनके पति या बेटो के पास ही रह गया। कही जायदाद मे अधिकार नही तो कही पढ़ाई के लिए प्रवेश नही। देश के पिछडे हुए गाँव की बात जाने भी दे तो देश की राजधानी मे स्थित सबसे बड़े अस्पताल एम्स मे अपनी पहचान से अनजान, अपने अस्तित्व के लिए जूझती नवजन्मी 10 बच्चियों के लिए क्या कहेंगे जिन्हें माँ-बाप अपना भविष्य ख़ुद बनने के लिए छोड़ गए।

महिलाओं को आरक्षण देने की बातें होती है पर उन्हें इतनी सुरक्षा भी मुहैया नही की वो रात को अकेले बाहर जा सके ... रात तो छोड़ो आजकल का माहौल देखकर तो ये लगता है दिन मे भी वो सुरक्षित नही है। बचपन भाई को सम्हालते, शादी के बाद पति को और बाद मे बच्चो को सम्हालते हुए जिंदगी निकाल देने के बाद भी यही कहा जाता है की तुमने क्या किया। ये बातें शायद किसी पिछडे हुए गाँव की लगती होगी पर ऐसा नही है ये कहानी महानगर के घरों मे हर रोज़ दोहराई जाती है। ऑफिस मे महिला अफसर है तो उसे काम करवाने के लिए कर्मचारियों से मशक्कत करनी पड़ती है साथ ही ध्यान रखना पड़ता है की कही पुरूष सह्कर्मचारियो का अहं को चोट न पहुचे।

पुरुषो के समाज मे गलती अगर पुरूष की हो तो भी सजा इमराना जैसी महिलाओं को ही मिलती है। और अगर इन्साफ मिल भी जाए तो उसके लिए कितना जूझना पड़ता है ये जेसिका लाल केस को देखकर कोई भी जान सकता है। भारत ... जहाँ नारी को पूजा जाता है .... पर वो पूजा शायद मूर्तियों तक ही सीमित है तभी तो नारी के अनादर की कहानियां तो आए दिन की ख़बर बन चुकी है।

कुछ महिलाओं ने अपनी पहचान, अपना मुकाम बनाया है पर उन्हें कितनी मुश्किलो का सामना करना पडा और अब भी करना पड़ रहा है। उनके इस मुकाम को पाने के लिए अगर उनके परिवार ने साथ दिया तो समाज ने रोड़ा खडा कर दिया, तो कही समाज ने भी साथ दिया। पर ऐसी कितनी महिलाऐं है जिन्हें परिवार का, समाज का साथ मिला। आज भी कई जगह महिलाओं को पैर की जूती समझा जाता है ... । लोग कहते है ज़माना बदल रहा है महिलाओं को आगे आने का मौका दिया जा रहा है सोनिया गाँधी, सुनीता विलियम्स आदि कितने उदाहरण है। पर क्या ये वाक्य अपने आप मे ये नही सिद्ध करता की महिलाओं को सदियों से दोयम दर्जा प्रदान था और अब भी वही दर्जा है जिसे धीरे-धीरे बदलने की कोशिश(?) की जा रही है। आज़ादी के 60 साल बाद भी महिलाएं अपनी पहचान की लिए जूझ रही है, अपने कुचले हुए अस्तित्व को तलाश रही है, अपनी किस्मत किसी और के हाथो नही बल्कि अपने हाथों लिखने के लिए संघर्ष कर रही है। जाने कब इस संघर्ष का अंत होगा, जाने कब उन्हें बराबरी का दर्जा मिलेगा, कब उन्हें भी नागरिक समझा जाएगा और कब उन्हें आजाद इंसान होने का हक मिलेगा ...

Wednesday, March 5, 2008

हिम्मत ऐ मर्दा, मदद ऐ खुदा ...

अफगानिस्तान, तालिबान शासन बुर्को के बीच एक महिला अपना व्यापार करते हुए। सुनने में आश्चर्य जरूर होगा पर सच है। तालिबान शासन, जहाँ औरतों के आने-जाने पर भी पाबंदी थी वहाँ एक महिला ने अपने और अपने परिवार की जीविका के लिए व्यापार शुरू किया। तूफान में जलाया ये चिराग सुबह का सूरज बन गया है आज।

मुश्किलें कई आई, पर उसकी हिम्मत के आगे हारकर झुक गई। ये महिला एक पाठ है उनके लिए जिन्होंने हार को अपनी नियति मान लिया है। वो एक हौसला है उनके लिए जिन्होंने शुरुआत से पहले ही घुटने टेक दिए। अनुकूल परिस्थतियों में तो हर कोई जीत जाता है पर विपरीत परिस्थतियों में में जूझना, जीना और उन्हें अनुकूल बनाने का हौसला कम लोगो में होता है ... और जो ऐसा करते है वो एक मिसाल बन जाते है।

Monday, March 3, 2008

हमारा आज ...

2008 अभी शुरू ही हुआ है ... 21 वी शताब्दी की शुरुआत ही है ... 21 वी शताब्दी जब सब कुछ बदल जायेगा ... एक खुशहाल दुनिया जहाँ चारो तरफ़ सुख-शांति होगी ... 2010 तक हम ये कर देंगे ... 2015 तक ये हो जायेगा ... 2020 तक दुनिया बदल जायेगी .... ऐसे कितने दावे, वादे किए गए थे/है। कितने सपने देखे लोगो ने 21 वी सदी के लिए। ऐसा लगा सुनकर की 21 वी सदी आते ही चमत्कार होगा और दुनिया मे जितनी भी समस्याएं है सब एक साथ खत्म हो जायेगी।

आज जब 21 वी सदी शुरू हुए 8 साल हो गए है तब एक दिन समाचार पत्र मे दो ख़बर पढी ....

अफ्रीका से छोटे-छोटे बच्चे खरीदकर लंदन लाये जाते है। ये बच्चे बहुत छोटे होते है कभी कभी तो 2-3 साल के। माँ-बाप इन्हे अपनी जरूरते पूरी करने के लिए नही बल्कि इनके सुनहरे भविष्य के लिए इन्हे दलालों के हाथो बेच देते है। उनको क्या पता की जिस कहानी पर विश्वास कर के अपने बच्चो को दलालों के हाथो बेच रहे है वो महज एक कहानी ही है ... हकीकत से कोसो दूर। हकीकत तो ये है की उन बच्चो को लंदन लाकर बड़ा किया जाता है और जब वो 7-8 साल के हो जाते है तो उन्हें काम पर लगा दिया जाता है। 7-8 साल का बच्चा जिसे ख़ुद को सम्हालना नही आता वो दुसरे बच्चे को सम्हाल रहा होता है, जिसे पेट भरने के लिए खाना नही मिलता वो झूठे बर्तन साफ करता है ... और शायद उन बर्तनों मे अपने पेट के लिए खाना और अपना भविष्य तलाश रहा होता है ...

मैंक्सिको के गाँव मे औरतो को नागरिक नही माना जाता, कारण की औरते काम नही करती। सुबह चार बजे उठकर घर के काम मे लग जाना, जंगल जाकर लकडियाँ लाना, खाना बनाना, घर सम्हालना वहाँ के "नागरिको" की नज़र मे काम नही है। और इसलिए महिलाओ को नागरिको के अधिकार वोट करना, चुनाव लड़ना आदि प्राप्त नही है। जब वहाँ एक महिला मेयर चुनाव के लिए खड़ी हुई तो उसका इतना विरोध हुआ की उसे अदालत की शरण लेनी पड़ी।

ऐसी बहुत सी कहानियाँ समाचार पत्र के पन्नों पे यहाँ वहाँ बिखरी हुई मिल जायेगी। ये आम समाचार इतने आम हो चुके है की इन्हे पढ़ना भी अब समय की बर्बादी मानी जाती है। और 21 वी जहाँ जीने के लिए समय नही है वहाँ ऐसी खबरों के बारे मे सोचकर कौन समय बरबाद करने की हिमाकत कर सकता है। पर मुझ से रहा नही गया और मैं इन खबरों के बारे मे सोचने पर मजबूर हो गई।
21 वी सदी - कितनी खुशहाल जहाँ आज भी बच्चो को खुशहाल भविष्य के लिए बेचा जाता है, कितनी खुशियों भरी जहाँ आज भी बच्चो को अपना बचपन बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है और अंत मे वो हार जाते है, ख़ुद के पेट पर पट्टी बांधकर झूठे बर्तन माँझते है, जहाँ आज भी महिलाओ को बराबरी का दर्जा पाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। "सामजिक सुरक्षा" इतनी ज्यादा मुहैया करवाई गई है महिलाओ को, की उसी सुरक्षा के नाम पर उन्हें घर से बाहर जाने की इजाज़त नही दी जाती, या जाना भी है तो या तो उनके साथ कोई "नागरिक" होना चाहिए या वो परदे मे होनी चाहिए।

पहली ख़बर दुनिया के विकसित देशो मे से एक देश की राजधानी लंदन से है। जब वहाँ बच्चो को इतनी सुविधाये मुहैया करवाई जाती है तब तो अरब देशो के खेल "ऊंट दौड़" पर तो हमे नाज़ होना चाहिए। बच्चो मे खेल-कूद को बढ़ावा देने के लिए और उनमे से हर प्रकार का भय दूर करने के लिए ही शायद ऊंट दौड़ करवाई जाती है, जिसमे बच्चो को ऊंट से बाँध दिया जाता है। ऊंट दौड़ता है और बच्चा भय से चिल्लाता है जिस से ऊंट और तेज़ दौड़ता है। कभी-कभी बच्चो की मौत भी हो जाती है। अच्छा है जनसंख्या कुछ तो कम होती है।

21 वी शताब्दी ... जहाँ बच्चो को मनोरंजन का साधन, सस्ता मजदूर का दर्जा दिया गया है, जहाँ महिलाओं को नागरिक तो क्या कभी कभी इंसान मानने से भी इनकार किया जाता है ... वाकई मे ज्यादा कुछ नही बदला है पिछली सदी के मुकाबले। अगर कुछ बदला है तो वो है संख्याएँ ... संख्या कितने बच्चे अब भी असुरक्षित है, कितने बच्चो को अब भी जीने के लिए अपने बचपन का गला घोटना पड़ता है, कितनी महिलाओं को सुरक्षित रहने के लिए अब भी चार दिवारी मे रहना पड़ता है ... और ये संख्याएँ हर साल हर सदी बढ़ती ही जा रही है। शायद यही संख्या दुनिया के विकास की कहानी कहती हो...

Thursday, February 21, 2008

कहानी बम धमाको के बाद की

11/7 मुम्बई के धमाको की गूंज पूरी दुनिया ने सुनी पर उस धमाके की गूंज लोगो की जिंदगी मे धमाको के बाद भी गूंजती रही। बम धमाको के बाद मुम्बई कहने को तो कुछ घंटो बाद ही वापस अपनी पटरी पर आ गई पर लोग उसके बाद भी आतंक के साए मे थे। अपनों के जाने के घाव तो थे ही उस अनुभव की परछाई अब भी उनकी जिंदगियों मे थी। लोग धमाको से सचेत होने और आतंक से लड़ने की जगह उसे अपनी नियति मान बैठे थे। ये अनुभव मुझे मुम्बई बम धमाको के करीब आठ महीनों बाद हुआ।

होली के कुछ दिन बाद की बात है ... मैं मुम्बई लोकल बांद्रा से बोरीवल्ली सफर कर रही थी। महिलाओं का डिब्बा था और करीब 15-20 महिलाऐं थी। लोकल अपनी गति से सफर तय कर रही थी, किसी आम भारतीय कि तरह ... हमेशा अपने ढ़र्रे पर चलना है चाहे जो हो जाए उसे बदलना नही है। मैं खिड़की से बाहर देख रही थी, डिब्बे मे क्या हो रहा है उस से बेखबर शायद एक नागरिक होने की जिम्मेदारी से मुँह फेरकर।

तभी लोकल एक स्टेशन पर रुकी, कुछ लोग उतरे और कुछ लोग चढ़े और फिर लोकल आगे बढ़ चली। अगला स्टेशन आने मे करीब 12-15 मिनट कि देरी थी। तभी किसी कि नज़र ऊपर पड़े एक कागज़ के थैले पर पड़ी। उसने सबसे पूछा पर वो थैला किसी का ना था। कुछ ही क्षणो मे सबकी आखों के सामने मुम्बई बम धमाको कि तस्वीरे आ गई, जो घाव अभी भरे भी न थे ताज़ा हो गए। सबको ऐसा लगा जैसे लोकल और उनकी जिंदगी का सफर अभी खत्म होने को ही है। खौफ ने जैसे सबका सुकून ले लिया था। मुम्बईवासियों की जिंदगी कहने को तो बम धमाको के बाद नोर्मल हो गई थी पर अब भी उसकी परछाई ने उनकी जिंदगी को नही छोडा था।

तभी किसी ने कहा कोई देखो तो क्या है उस थैले मे। थैला मेरे सिर के ऊपर ही था। पर किसी की हिम्मत नही हुई अपने हाथो अपनी मौत देखने की। ये जानते हुए भी की मौत एक दिन आती ही है, लोग किस तरह इस सच से जिंदगी भर मुँह फेरते रहते है, किस तरह मौत का ख्याल भी उन्हें खौफ से भर देता है - यही उस वक्त सबके चेहरे पर नज़र आ रहा था।

तभी मेरे दिमाग मे एक विचार कौंधा - " मौत तो सामने है ही, फिर चाहे आँखे बंद कर के आए या आँखे खोल कर अपने हाथो ... "। यही सोचकर मैं उठी पहले बिना छुए थैले मे देखा क्या है, कुछ नज़र नही आया। फिर एक कदम बढ़कर मैंने थैले को छुआ, ऐसा लगा मौत मेरे पास आ रही है। थैला देखा, कुछ ना था, दुबारा देखा कुछ ना था ऐसा लगा जैसे मौत पास से निकली हो, मेरी मौत नही थी वो, वो मौत थी देश एक जिम्मेदार नागरिक की जो मैंने अपनी लापरवाही और सचेत न होने से दी थी और शायद उस डिब्बे मे बैठे हर एक ने मौत की थी।

और कुछ सोच पाती या करने का सोच पाने तक मेरा स्टेशन आ गया था। तभी नज़र रेलवे के लगाये हुए एक काले रंग के पोस्टर पर लगी जिस पर सफ़ेद रंग से लिखा था " सचेत रहिये, अपने आसपास की हर हरकत पर नज़र रखिये, कोई संदिग्घ व्यक्ति या वस्तु मिलने पर ... "। शायद काला रंग सोते सफ़ेद नागरिको के लिए था और सफ़ेद शब्द उनको बताने के लिए की उनको सुबह लानी होगी, जागना होगा, पर कितने जागे ... ।

यही सब सोचते मैं जा रही थी की तभी याद आया की वो थैला मैं ट्रेन मे ही छोड़ आई ... मतलब अभी और कितनी जिंदगियाँ मौत की गलियों से गुजरेंगी ... और कितनी मौते होगी ...

Thursday, February 14, 2008

Valentine Day - एक नजरिया

Valentine Day पश्चिमी देशो का एक त्यौहार (?) जो हमारी संस्कृति पर हमला है ... हमे इसे मनाने की बजाय इसका विरोध करना चाहिए! Valentine Day प्यार को जाहिर करने का दिन पर मैं इसे नही मानाउँगी क्योंकि प्यार जाहिर करने के लिए मुझे कोई विशेष दिन नही चाहिए ... ऐसे कितने वाक्य हर साल valentine day के दिन सुनने को मिलते है। हर साल विरोध होता है और इस विरोध के बीच पिछले साल से और कही ज्यादा लोग valentine day मनाते है। ये नजरिया हमारे देश में काफी लोगो का है। पर मेरा मत इनसे अलग है।

मैं भी valentine day मनाती हूँ ... पर एक दूसरी सोच के साथ ... मेरे valentine day मनाने के पीछे उद्देश्य कुछ और है। valentine day ... प्यार का पर्व जिसका मतलब मेरे लिए प्यार बाँटना है ... हालांकि प्यार बाँटने के लिए कोई विशेष दिन की जरूरत नही होती पर इस भागती दौड़ती जिंदगी के बीच हमे ऐसे कुछ दिनों की आवश्यकता महसूस होने लगी है और शायद ये उन कुछ कारणो मे से है जिसकी वजह से valentine day मनाने वालो की तादाद हर साल बढ़ रही है। valentine day ... भारतीय बसंत-पर्व का पश्चिमी रूप है। हालांकि बसंत-पर्व इतना प्रसिद्ध नही हुआ जितना की valentine day ... जिसकी वजह शायद "branding" हो सकती है ... पर दोनों का उद्देश्य एक ही है।

valentine day के commercial/business कारणों को छोड़ कर देखा जाए तो हमे महसूस होगा की ये एक दिन है जब हम अपने भूले हुए दोस्तो को बिना किसी कारन याद करते है, बातें करते है। कहने को तो दोस्ती किसी एक दिन की मोहताज नही होती, पर जिंदगी की बढ़ती जिम्मेदारियों के बीच हम सब भूल जाते है। ऐसे मे valentine day, friendship day हमे वो दोस्त, वो पल, वो यादे एक बार फिर लौटा लाने का बहाना देते है। साल के 365( या 366) दिन मे से कितने दिन हमे याद रहता है की हम अपने दिल की बात जाहिर कर सके, कितने दिन होते है जब हम अपनों को बताते है की हम उनसे कितना प्यार करते है। कहने को तो लोग कहते है की ये बताने की जरूरत नही होती की आप किसी से कितना प्यार करते है ... प्यार अपने आप पता चल जाता है ... पर फिर भी जब कोई आपसे ये कहे की आप उसके लिए कितने जरूरी हो, वो आपसे कितना प्यार करता है ... ये आपको अपने होने का अहसास होता है, आपको पता चलता है की आप भी किसी के लिए ख़ास है, जरूरी है।

मेरे ख्याल से valentine day किसी भी अन्य भारतीय त्योंहार की तरह है जब हम अपनी खुशियाँ लोगो के साथ बताते है। valentine day कहने को पश्चिमी त्यौहार है पर जब बात खुशियाँ बाँटने की हो, जिंदगी जीने की हो तो उन्हें सीमाओं मे कैद नही करना चाहिए। रही बात हमारी संस्कृति के विरुद्ध होने की तो हमारी संस्कृति मे भी बसंत पर्व है और होली के दिन छेद चाद करना, दीवाली के दिन जूआ खेलना ये क्या हमारी संस्कृति के विरुद्ध नही है?

ये इंसान पर निर्भर करता है की वो किस नज़रिये से क्या देखता है या देखना चाहता है। हर सिक्के के दो पहलू होते है ... जब खुशी मिल रही है तो उसे देखो उसे जीओ, दुसरे पहलू के बारे मे सोचो पर उसकी वजह से खुशियों को बढ़ने से मत रोको।

आख़िर मे ... " बाटते चलो प्यार .... "

Thursday, January 24, 2008

मकसद जिंदगी का ...

हर जिंदगी में कोई न कोई मकसद होता है ... मकसद सफल होने का ... मकसद शोहरत पाने का ... मकसद पैसा पाने का ... मकसद जिंदगी सुख-शांति से जीने का या कोई और मकसद। इस मकसद को पाने के लिए इंसान उस पथ पर चलता रहता है जो आगे चलकर उसकी मंजिल तक पहुँचाता है।

पर अगर वो मंजिल ही खो जाये ... या मंजिल-पथ काँटो से भर जाए ... या आगे जाने रास्ता बंद हो जाए ... मतलब जिंदगी का मकसद पाना नामुमकिन सा हो जाए तो इंसान को क्या करना चाहिए ... निराशा के दलदल में डूब जाना चाहिए या खुदखुशी कर लेनी चाहिए? क्या मकसद न पाने का मतलब जिंदगी खतम होना होता है?

यही सब सोचते हुए जा रही थी की तभी एक पेड़ दिखा ... और पेडो कि तरह हरा-भरा ... पर फिर भी कुछ अलग। हर पेड़ कि तरह शायद उसका भी सपना आसमान छूना रहा होगा ... और इसे पूरा करने के लिए उसने एक रास्ता बंद होने के बाद दूसरा रास्ता अपनाया। उस पेड़ का मुख्य तना कटा हुआ था ... पर उसे अपना सपना पूरा करना था ... अपनी मंजिल पानी थी और इसलिए तना काटने के बावजूद उसने अपनी मंजिल पाने कि उम्मीद नही छोडी। पेड़ का तना नही था ... पर उसकी शाखाये इतनी बड़ी हो चुकी थी कि वो मानो आसमान छू रही हो और कह रही हो ... जिंदगी सिर्फ एक मंजिल या एक रास्ते तक ख़त्म नही होती। जिंदगी में एक रास्ता बंद हो गया तो दूसरा तलाशो ... और इस तलाश के लिए अपने सपनो पर यकीन, मंजिल पाने कि ललक और उम्मीद का दामन थामे रहने कि जरूरत है। जिंदगी ख़त्म करने से ना मंजिल मिलने वाली और ना ही दूसरी जिंदगी ... सपनो को पूरा करने के लिए ... जो है आज है ... मुश्किलो का सामना कारो ... नया रास्ता तलाशो ... हिम्मत और उम्मीद रखो मंजिल अपने आप सामने नज़र आएगी ...

Monday, January 21, 2008

11/7 Experience

11/7/2006 ... शायद बहुत लोगो को इस तारीख का मतलब ना पता हो ... ये तारीख है ... मुम्बई बम विस्फोटो की ... जिसने लोगो को बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर दिया था ... किसी को देश के बारे में ... किसी को देश की सुरक्षा के बारे में ... कोई मुम्बई के बारे में सोच रहा था, जो विस्फोटो के कुछ घंटो के बाद ही वापस पहले जैसी चालू हो गयी थी। इन विस्फोटो के बाद मुझे भी बहुत कुछ अनुभव हुआ ... बहुत कुछ सोचने पर मैं मजबूर हो गयी ...

" ... अच्छा हुआ बम first class में रखा था, अगर यही बम second class में होता तो पता नही कितनी जाने जाती ..."
" ... बम रखने वाला भी गरीबो की सोचता है, तभी तो बम first class में रखा ..."

ये कुछ वाक्य है जो मुम्बई के विस्फोटो के बाद मैंने सुने ... और इन वाक्यों ने मुझे अन्दर तक झकझोर दिया, कुछ सवाल खडे कर दिए मेरे सामने ... क्या first class में बैठने वाले इंसान नही होते? क्या first class में बैठने वालो के लिए इंतज़ार कर रहा उनका परिवार नही होता? क्या उनके जाने से किसी की जिंदगी वीरान नही होती ... ? क्या किसी गरीब की बदकिस्मती उसे उस दिन first class में नही बैठा सकती?

कुछ वाक्यों से लोगो ने कितनी आसानी से इंसान-इंसान में फर्क कर दिया, बिना ये सोचे कि कोई भी जाये पर उनके इंतज़ार में बैठे लोगो का इंतज़ार अब कभी खतम नही होगा। कितनी आसानी से लोगो ने ये सब कहकर साबित कर दिया कि नुकसान उतना नही हुआ जितना हो सकता था ... पर उन्हें कोई ये क्यो नही समझाता कि जिनके अपने गए उनका नुकसान तो ऑका भी नही जा सकता।

इधर लोग अपनों कि खैर-खबर लेने के लिए परेशान हो रहे थे और उधर लोग उन्हें समझा रहे थे "... मुम्बई में ये आम बात है ... धीरे-धीरे आदत हो जायेगी ..." ... आदत किसकी जो गए उनके बिना जीने की ... हाँ कुछ दिनों में हो जायेगी और फिर ... और फिर कोई और चला जाएगा ... उसके बिना भी जीने की आदत हो जायेगी ... आख़िर कब कब ... कब तक हम अपने आपको इस तरह से दिलासा देते रहेंगे और कब तक अपने आपको खोखला करते रहेंगे।

इतना सब होने के बाद बहुत कुछ हुआ पुलिस ने छानबीन की, सरकार ने सात्वना दी और कुछ पैसे भी दिए ... भरपाई के लिए जो मर गए उनकी भरपाई के लिए ... जो जख्मी हो गए उनके जख्मो को भरने के लिए ... विपक्ष ने सरकार को कोसा, लोगो ने सरकार को कोसा पर क्या ये सही था? क्या हम जिम्मेदार नही थे इसके लिए। क्या हम सतर्क रहकर इस दुर्घटना को ताल नही सकते थे। ऐसे वक़्त तो हम अपनी जिम्मेदारी से मुँह मोड़ कर आगे बढ़ जाते है पर क्या हमारा ग़ैर-जिम्मेदाराना रवैया इन सबके लिए जिमेदार नही है? कहने को तो हमारी सुरक्षा सरकार और पुलिस की जिम्मेदारी है पर क्या हमारी कोई जिम्मेदारी नही है?

दुनिया ने ये सब होने के बाद मुम्बई कि तारीफ़ की, कि इतना सब होने के बावजूद मुम्बई कि रफ़्तार कुछ पल के लिए ठहरी पर जल्द ही लौट आई ... और हम खुश हो गए ... वापस वही ढर्रा चालू। कब तक ... आख़िर कब तक ये चलता रहेगा? कब तक हम अपने लिए जीते रहेंगे? कब हम दूसरो के लिए जीना सीखेंगे? कब सीखेंगे कि किसी के जाने का दुःख सिर्फ दुःख होता है, इसमे भेदभाव नही किया जा सकता ... आख़िर कब?

Monday, January 14, 2008

फेके हुए पत्ते ...

आज शिव मंदिर गयी थी। वहाँ लोग पूरी भक्ति भावना से पूजा कर रहे थे ... शिवलिंग को फूल-बील पत्र आदि अर्पण कर रहे थे। कहते है बील पत्र शिव को बहुत प्रिय होते है और शिव को बील पत्र चढाने से हर मन्नत होती है। जहाँ एक और शिवलिंग पूरी तरह बील पत्र से ढके हुए थे वही दूसरी ओर कुछ तिरस्कृत पत्ते पड़े हुए थे। पूछने पर पता चला कि वो पत्ते कही से कटे-फटे थे और ऐसे बील पत्र नही चढाये जाते। जहाँ कुछ बील पत्र अपनी किस्मत पर गर्व कर रहे थे वही तिरस्कृत बील पत्र एक कोने में चुपचाप पड़े हुए अपने आपसे ये गर्व ना पा सकने का कारण पूछ रहे थे। आख़िर दोनो एक ही इश्वर की कृती है और कौन ऐसा होगा जो अपनी ही कृति का तिरस्कार होते देखेगा।

यही सोच रही थी तभी एहसास हुआ की ये कहानी मंदिर तक ही सीमित नही है बल्कि समाज में हर जगह ऐसी ही कोई कहानी चल रही है, कही न कही किसी कृति का अपमान हो रहा है ... चाहे वो कृति विधवा स्त्री हो या एक बेटी या मानसिक रुप से अपंग बच्चा या बुढे माता-पिता हो। वो भी कही से कटे-फटे पत्ते के सामान है जिसे समाज मुख्यधारा के लायक नही समझता और उनका तिरस्कार करना समाज अपना कर्तव्य समझता है।

समाज ये भूल जाता है कि इश्वर ने इन कृतियों को भी उतनी ही तन्मयता और लगाव से बनाया है जितनी किसी और कृति को। ये तो समय के थपेडो ने या हमारी मानसिकता ने उन्हें तिरस्कार करने योग्य वस्तु समझ लिया है। पर इसका मतलब ये नही की इश्वर को ये जो कुछ हो रहा है वो पसंद है ... या इन सब में इश्वर की मौन स्वीकृति है। कोई भी अपनी कृति का अनादार होते हुए नही देख सकता ... फिर ये तो इश्वर है।

इस तरह अपनी ही कृति अनादार होते हुए देखकर क्या इश्वर तुम्हारी मन्नत पूरी करेगा ...? ये कृतियाँ ऐसी है तो इसमे इनका क्या कसूर ... ? क्या ये हमारी गलत मानसिकता का कसूर नही ... ? अगर हमारी मानसिकता गलत है तो इस मानसिकता को हमे अपने आप से अलग करना चाहिऐ या इन मासूमों को समाज से ... ?

Thursday, January 3, 2008

Principles of Economics ...

(1) जितनी ज्यादा आपने पढाई की है, मतलब investment किया है, उतनी ज्यादा आपकी salary ...
शायद इसीलिए एक 17-18 साल का लड़का जो दिन भर धूप में बैठकर मोची का काम करता है, लोगो के जूते चप्पल ठीक करता है, इतना भी नही कमा पाता की अपने परिवार का पेट भर सके। वही दूसरी ओर graduation किया एक इंसान ac में 8-10 घंटे काम कर के भी उस से कही ज्यादा कमाता है। लोग मोची को 2 रूपए देने में भी आनाकानी करते है ... पर यही लोग दिखावे के लिए सैकडो खर्च कर देते है। शायद हमारे समाज में अभी भी मानसिक श्रम का महत्व शरीक श्रम से कही ज्यादा है।

पर अगर पहले economics के principle को सही माने तो फिर एक MA करा हुआ इंसान मूंगफली बेच कर भी उतना क्यो नही कमा पाता जितना उसने invest किया है ... या ऐसा कहे कि MA करे होने के बावजूद उसे मूंगफली क्यो बेचनी पड़ रही है ... शायद economics का दूसरा principle इसे समझा सके ...
(2) इंसान को अगर अपनी पसंद का काम ना मिले तो वो unemployed रहते है, इसे frictional unemployment कहते है ...
अगर ऐसा है तो फिर वो मूंगफली क्यो बेच रहा है ... शायद इसलिए कि ..
(3) इंसान कि जरूरतों को पूरा करने के लिए पैसा चाहिऐ होता है ...

शायद यही वजह है कि पटाखों की factory जैसी खतरनाक जगह बच्चे काम करते है। पढाई - खेलकूद छोड़कर उन्हें पेट भरने के लिए इन factories में काम करना पड़ता है। वही पटाखे जिनके धुए में अमीर अपने पैसे उडाते है। आख़िर सही भी है क्योंकि economics के principle के अनुसार -
(4) economy के चलते रहने के लिए पैसा float होते रहना चाहिऐ। अगर ऐसा नही होता है तो economy डूब जायेगी।
फिर चाहे पैसा पटखो के धुए में उडे या casino में।

Economics के कुछ और principles ...
(5) people face tradeoffs, मतलब इंसान को कुछ पाने के लिए कुछ छोड़ना पड़ता है। शायद इसीलिए लोग तरक्की पाने के लिए, पैसा कमाने के लिए अपने बूढे माँ बाप को भगवान भरोसे छोड़ देते।

(6) people respond to incentives ... इसीलिए तो आजकल बिना भेट दिए आपका काम नही होता ... आख़िर लोग तभी तो काम करेंगे जब उन्हें अपना कुछ फ़ायदा होता दिखेगा।

ऐसी कितनी ही बाते है जिन्हें economics के principles से explain की जा सकती है ... पर क्या वाकई में ये समस्याएं economics की है ... या हमारे social system, education system, thinking की वजह से है? शायद ऐसे कितने ही वाकये है जिन्हें हम अपनी सोच में, अपने रवय्ये में परिवर्तन लाकर के बदल सकते है। पर सवाल ये है की बदलाव लाना कहाँ से होगा ... दूसरो से या अपने से ...