Wednesday, November 21, 2007

Materialistic Life ...

कल मुझ से एक सवाल पूछा गया ... मेरा blog "क्या यही जिंदगी है..." पढ़ के। "How will you define materialistic life ?" सवाल का जवाब मुझे पता था और मैं बोलने भी वाली थी ... " जब आप पैसे के लिए जीओ ... दुनिया का ऐशो-आराम आपको सब कुछ लगे ... जब सुख सुविधा के सामान आपको जिंदगी लगने लगे ... और जिंदगी में ... रिश्ते, घर, परिवार से ज्यादा पैसे कि अहमियत हो जाये ... तब वो materialistic life होती है। पर जवाब देते देते मैं रूक गयी ... क्या मैं जो सोच रही थी ... वो सही है या उसमे कुछ और भी है ...

आज हम जिस दुनिया में जी रहे है ... वहाँ पैसे का होना जरूरी है ... पैसे के बिना जिंदगी जीना असंभव है और हम साधू संत भी नही ... तो क्या पैसा कमाना और उसके लिए हाड-तोड़ मेहनत करना materialistic life है? बहुत बार इंसान को पैसा कमाने के लिए घर परिवार को छोड़ कर घर से दूर जाना पड़ता है ... तो क्या इसका मतलब ये है कि वो materialistic life जी रहा है ?

सोचने पर मेरे सामने ये जवाब आया ... जब इंसान ये भूल जाये कि पैसा जीने की जरूरत है जीवन नही, जिंदगी जीने का जरिया है ... जिंदगी से बढ़कर नही ... वो पैसे को सबसे ऊपर मनाने लगे तब वो materialistic life जी रहा है ... (यहाँ पैसे से मेरा मतलब पैसा, सुख-सुविधा का सामान आदि से है ...)। अगर कोई हाड-तोड़ मेहनत करके पैसा कमा रहा है ... और तब भी वो अपने परिवार के पास है ...मतलब परिवार को याद रखता है और उनकी ज़रूरतों (emotional and physical) को समझता है, पैसे से खुशियों को नही तोलता, तो वो जानता है पैसा जरूरी है जीने के लिए ... पर उस से परिवार की और खुद की खुशियाँ नही खरीदी जा सकती, खुशियों के लिए उनकी भावनाओं को समझाना चाहिऐ ...

पैसा सही तरीके से कमाना ethical और legal तरीके से सही है ... पर उस पैसे को कमाने के चक्कर में वो घर परिवार को, खुद को ना भूल जाये। अगर इंसान को लगे की वो पैसे से घर की, खुद की हर ख़ुशी को खरीद सकता है ... और इसलिए उसे दिन रात सिर्फ मेहनत करनी है ... बिना ये सोचे की घर पर कोई उसका इंतज़ार कर रहा है ... उसके बच्चों को भी उसकी ज़रूरत है ... तो मुझे लगता है की उसे एक बार फिर से सोचना चाहिऐ की क्या वो जो सोच रहा है वो सही है ...

यहाँ पर मुझे एक कहानी याद आ रही है। शायद आपने ये कहानी पहले भी पढी होगी .. पर सोचा नही होगा … आज फिर से पढिये और सोचिये … कहानी तरह कुछ इस से है -
एक बार एक इंसान काफी थका हुआ देर रात office से घर लौटता है। उसका बेटा उसके पास आता है और पूछता है ... पापा आप एक घंटे में कितना कमाते है। ये सुनकर उस इंसान को ख़ुशी होती है ... की बेटा उसके बारे में जानना चाहता है। वो बोलता है 100 रूपए। ये सुनकर बेटा सोच में पड़ जाता है ... ये देखकर वो इंसान बेटे से पूछता है क्या हुआ। बेटा डरते डरते बोलता है ... पापा क्या आप मुझे 50 रूपए दे सकते है। ये सुनकर उस इंसान को गुस्सा आ जाता है ... एक तो वो थका हुआ आया है और उसका बेटा उस से पैसे माँग रहा है ... और अगर एक बार पैसे दे दिए तो ये उसकी बार बार की आदत बन जायेगी ... यही सोच कर वो बेटे को डाँट कर भगा देता है। थोडी देर बाद जब उस इंसान का गुस्सा शान्त्त होता है तब उसे अपने किये पर पश्चाताप होता है। उसे लगता है कि उसके बेटे को जरूर कोई जरूरत होगी तभी वो पैसे मांगने आया था ... । यही सोच कर वो अपने बेटे के पास जाता है और उसे पैसे देता है ... बेटा पैसे देखकर बहुत खुश हो जाता है। वो अपने तकिये के नीचे से बाक़ी पैसे निकालकर गिनने लगता है। बेटे के पास और भी पैसे देखकर उस इंसान को और भी गुस्सा आता है ... पर वो अपने अपने आपको नियंत्रित करता है ... ये देखने के लिए कि बेटा उन पैसो से क्या करता है। पैसे पूरे 100 रूपए थे ... ये जानकार बच्चे कि आँख में चमक आ जाती है। वो पैसे अपने पिता को देते हुए बोलता है "पापा क्या कल मुझे आपका एक घंटा मिल सकता है ... "

क्या पैसा इतना जरूरी है की जिन लोगो की जरूरतों को पूरा करने के लिए हम कमा रहे है ... उन्ही की जरूरतों को हम समझ ना सके ... या अनदेखा कर दे, और खुद क्या है कौन है ये भी भूल जाये ... सिर्फ पैसा कमाने कि मशीन बन जाये ... हाँ मशीन जिसे ना अपने emotions का पता न दूसरो का ...

इसी मशीनी जिंदगी को मैं materialistic life कहती हूँ .... जिसमे emotions, feelings की कोई जगह नही ... सिर्फ पैसा एशो आराम ... और अगर जगह होती भी है तो दुसरे नंबर पर ...

अंत में एक line ...
"Money is means for living life ... but it is not life"
हो सके तो सोच कर देखना ...

Sunday, November 18, 2007

ऐ जिंदगी गले लगा ले ...

रात के 9 बजते ही वो अपाहिज (शायद अपाहिज बोलना गलत होगा ...)अपनी तिपहया cycle पर घूमने निकल जाता था। उसके दोनो पैर खराब हो चुके थे ... एक हाथ भी शायद paralysis के कारण खराब हो गया था ... और शायद उसी paralysis के कारण उसकी गर्दन भी टेढी हो गयी थी। इतना सब होने के बावजूद ( या कुछ नही होने के बावजूद ... ) उसने जीने कि आशा रखी हुई है। हर रात 9 बजे वो घूमने निकल जाता है ... और उसे देख कर एहसास होता है कि जीने कि चाहत होने के लिए पैसा, हाथ पैर कि ज़रूरत नही खुद पर विश्वास और जिंदगी पर भरोसा होने कि जरूरत होती है। जब भी कभी जिंदगी में कोई परेशानी आती और ऐसा लगता कि जिन्दगी मेरे साथ ही ऐसा क्यो करती है ... तो उसे देख कर या याद कर के खुद कि परेशानियाँ छोटी लगने लगती और लगता कि मुझे भगवान् ने इतना कुछ दिया है तब भी छोटी छोटी बातो को लेकर मैं परेशान हो जाती हूँ ... जिंदगी से शिकवा करने लगाती हूँ ... पर उसे और उस जैसे लोगो से तो भगवान ने तो जैसे सब कुछ ले लिया है फिर भी उन्हें जिंदगी से कोई शिक़ायत नही ... तब भी वो जिंदगी को पूरी तरह से जीना चाहते है। उसे देखकर लगता ... वो अपाहिज नही है क्योंकि अपाहिज वो नही होता जिसके हाथ पैर नही है ... बल्कि वो होता है जिसके पास उम्मीद नही है ...

एक दिन newspaper में एक तस्वीर देखी ... तस्वीर थी एक या एक प्रेरणा का स्रोत ... तस्वीर एक footaball player की थी। Football player तो काफी देखे ... फिर भी उसमे ऐसा क्या था जिसने मुझे अन्दर तक झकझोर दिया ... उसने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि एक बार अगर कुछ करने का ठान लिया जाये तो फिर कुछ भी मुश्किल नही है। कुछ कर दिखाने के लिए निश्चय, कुछ कर गुजरने का होसला और विश्वास कि जरूरत होती है ना कि बैठ कर सिर्फ सोचने की ... और फिर नही होने पर बहाने देने की। वो तस्वीर थी football player की ... जिसका एक हाथ और एक पैर नही था ... तब भी वो खेलने का हौसला रखता है ... ऐसे लोगो के लिए ही शायद कहा गया है ... " Nothing is impossible in this world, even impossible says I M POSSIBLE"

ऐसे कितने ही लोग दुनिया में मिल जायेंगे जिन्होंने बता दिया है कि जीना हो तो उसके लिए जीने कि चाहत होनी चाहिये ... मुश्किलो से लड़ने का हौसला चाहिऐ और हर हालात को अपनाना और उसमे मुस्कुराना आना चाहिए। जिंदगी बार बार नही मिलती ... एक बार मिली है तो कुछ कर गुजरने के लिए ... उस से शिकवा शिक़ायत करने को नही ... जिंदगी में सब कुछ नही मिलता है ... पर शायद जितना मिला वो दुसरे बहुत लोगो से बहुत ज्यादा है ... उसे स्वीकार कर के जिंदगी को पूरी तरह से जी लो ...

Thursday, November 15, 2007

क्या यही जिंदगी है ...

आज हमारे पास मोबाइल तो है सबसे बात करने क लिए, पर वक़्त नही है किसी की बात सुनने और अपनी बात कहने का। आज हमारे पास internet तो है दुनिया से जुड़ने के लिए पर पड़ोस में क्या चल रहा है ये हमे नही पता। दुनिया को हमने satellite से जोड़ दिया पर दिल से दिल के तार जोड़ने का वक़्त नही।

पैसा तो बहुत कमाया पर कभी शांति नही मिली, कभी अपने आपको जिंदगी जीने का मौका ही नही दिया। तरक्की के लिए जोड़-तोड़ की पर कभी बिखरे हुए रिश्तों को जोड़ने का प्रयास नही किया। काम के लिए, पैसे के लिए दुनिया के कोने-कोने में गए पर घर पर इंतज़ार कर रहे लोगो के बारे मे कभी सोचा ही नही। दुनिया के लिए समय है, पर अपने आपको जानने का समय नही है। हर तरह कि किताब पढी, दुनिया भर का ज्ञान समेटा, पर खुद को पढ़ने का सोचा भी नही। सब कुछ पाया पर फिर भी कही कुछ छुट गया, मन में, जिंदगी में कही कुछ खालीपन रह गया है। सब कुछ "Plan" किया पर जिंदगी के मोड़ पर आकर ऐसा लग रहा है जैसे सब बिखर गया है, हाथ से फिसल गया है। ऐसा क्यों है कि जो चाहा वो मिला पर सब पाने के बाद भी ख़ुशी नही मिली। और जो पाकर ख़ुशी मिलती, वो तो जिंदगी कि भाग दौड़ में पीछे बहुत पीछे छुट गया ... । आज जब ये सब पाने की ख्वाहिश है तो वो मिल नही सकता क्योंकि उन्हें तो मैंने जिंदगी कि दौड़ में आगे रहने के लिए पीछे किसी मोड़ पर छोड़ दिया। पर अब क्या ... कहाँ मिलेगी ख़ुशी ... कहाँ मिलेगा सब कुछ ...

Sunday, November 11, 2007

Homsickness...

ये मेरी पहली दिवाली थी जो मैंने घर से दूर रहकर मनाई। घर की याद, घर वालो की याद ... सब से घिरी थी मैं। जैसे ही मेरे आसपास के लोगो को पता लगा कि ये मेरी घर से दूर पहली दिवाली है, तो उन्होने मेरे से पूछा homesick feel हो रहा है क्या। उनकी आखों मे मेरे लिए sympathy थी, वैसी ही जैसी किसी मरीज़ के लिए होती है। Sympathy देख कर मुझे बोलना पड़ा, नही ऐसी कोई बात नही है, क्योंकि मैं नही चाहती थी की उनके सामने मैं बेबस या कमज़ोर नज़र आऊँ।

कमज़ोर ... हाँ कमज़ोर ... घर को याद करने वालो को इस सभ्य समाज मे कमज़ोर ही तो माना जाता है। घर से दूर पढ़ने या कमाने आये लोग, अपने घर को, घरवालो को याद नही कर सकते, क्योंकि वो अब समझदार हो चुके है। घर को याद सिर्फ नासमझ बच्चे कर सकते है, या वो जो कमज़ोर होते है। शायद इसीलिए इसका नाम भी "homesickness" रखा है।

Homesickness ... नाम से ही पता चलता है कोई बीमारी है, और जैसे कि बीमारी अच्छी नही होती, वैसे ही ये भी अच्छी नही है। लोग भी अपने आप को स्वस्थ दिखाने के लिए इस बीमारी से मुह फेर लेते है ... फिर चाहे वो कितने ही बीमार ... sorry ... घर को याद करते हो। आख़िर "सभ्य समाज" मे ज़ीना है तो "सभ्य" बनकर ज़ीना होगा। इसके लिए जरूरी है कि इस तरह कि किसी बीमारी के आप शिकार ना हो। और अगर आप शिकार हो भी गए ... homesickness नाम की खतरनाक बीमारी से ... तो आपके शुभचिंतक है ना इसे दूर करने के लिए ... आपको तरह-तरह के नुस्खे, तरह-तरह की सलाह मिल जायेगी बीमारी दूर करने के लिए, और तब तक मिलती रहेगी जब तक आप इस बीमारी से छुटकारा ना पा ले।

अगर कोई "selfrespect" वाला इंसान गलती से homesickness का शिकार हो भी रहा हो तो वो ये बताता नही है, क्योंकि बताने के बाद लोगो को उस से sympathy हो जाती है जो उसके "selfrespect" को ठेस पहुँचाती है। मतलब homesickness नामक बीमारी से आत्मसम्मान को भी खतरा। समाज मे जो आपकी image एक मजबूत इरादों वाले इंसान के रुप मे होती है वो image homesickness की बीमारी के बाद बदलकर "मम्मी का बेटा" या "emotional person" की हो जाती है।

Homesickness ... पर क्या वाकई मे ये बीमारी इतनी खतरनाक है, या ये कोई बीमारी है भी या नही। अपने घर को याद करना क्या गलत है, हालांकि अति अच्छी नही होती, पर क्या कभी भी घर को याद नही करना चाहिए। वो घर जहाँ आपने अपनी जिंदगी का एक हिस्सा बिताया, वो माँ-बाप जिन्होंने अपने खून पसीने से आपकी जिंदगी की बेल को सींचा, वो मिट्टी जिसके अंश अभी भी आपके शरीर मे है ... उसे याद करना क्या गुनाह है, उसको याद करने से क्या "selfrespect" चला जाता है, इंसान कमज़ोर हो जाता है ... ।

जिस घर, घर के लोगो कि वजह से इंसान को उसका आज मिला उसी को याद करने मे उसे हिचकिचाहट होती है सिर्फ इसलिए कि लोग उसे कमज़ोर न समझ ले। पर क्या ये सही है ... या इस मानसिकता मे बदलाव लाने की ज़रूरत है। अंत मे सिर्फ यही कहुँगी -
" घर, घर होता है, घर के लोग और कही नही मिलेंगे, इन्होने तुम्हे तुम्हारा आज दिया है, याद करने का कारण दिया है, फिर याद करने मे शर्म कैसी बल्कि गर्व से याद करो, अनजान लोगो को तो वैसे भी याद नही किया जाता, ये अपने ही है जो दिल के पास रहते है, तो फिर याद करने मे हिचकिचाहट कैसी।"

Friday, November 9, 2007

Billable Resources

Resource ... हाँ यही नया नाम है अब मेरा। एक ऐसी पहचान जो मुझे software industry में आकर मिली ... जिस से मुझे पहचाना गया ... और सिर्फ मुझे ही नही बल्कि यहाँ काम करने वाले हर एक employee को मिली है ये पहचान।

Resource ... एक इंसान से लेकर resource बनने का सफर कब तय हुआ, पता नही ... कब मैं एक हाड-मांस के सांस लेते हुए प्राणी से एक मशीन में तब्दील हो गयी। Software industry में आकर मुझे पता चला कि लोग कैसे अपनी identity खो देते है ... यहाँ आपको आपके नाम के बजाय आपके id number से पहचाना जाता है ... ठीक उसी तरह जिस तरह मशीन को उसके नम्बर से पहचाना जाता है।

Software industry में आकर resource तो मैं बन गयी थी, पर तब billable resource क्या होता है ये पता न था। तब एक दोस्त ने कुछ इस तरह समझाया - "जब आप project पर होते है तो आप जितना भी समय उस project पर काम करते है, उतने समय का client bill चुकाता है ( मतलब कीमत) ... और billable resource होना अच्छी बात है वरना आप company के लिए कुछ नही कर रहे है ... ।" मतलब जिस तरह किसी वस्तु का उपयोग करने के लिए उसकी कीमत चुकाई जाती है उसी तरह आपके समय का भी bill चुकाया जाता है। Deadline, जो कि हमेशा ideal होती है, तक काम पूरा करना होता है, चाहे इस के लिए मशीन को 8 घंटे काम करना पड़े या 16 घंटे ... आख़िर कीमत चुकाई गयी है।

और जब मशीन थक जाती है, तो उसे उठाकर company के बाहर उसी तरह फेक दिया जाता है जिस तरह दूध नही देने वाली गाय को मरने के लिए रास्ते पर छोड़ दिया जाता है। कुछ दिन पहले तक रहा billable resource पुराने unused software version कि तरह company से बाहर कर दिया जाता है। वो resource जिसने company के फायदे के लिए खुद को इंसान से मशीन में तब्दील कर दिया, आज कोई काम का नही रह जाने पर company से बाहर कर दिया गया है। Company, एक business, जहाँ लोग तब तक रहते है जब तक वो billable हो।

यहाँ पर नारायण मूर्ति कि कही ये पंक्तियाँ याद आती है -
"Never fall in love with company, because you may never know when your company stops loving you."

Wednesday, November 7, 2007

Change Yourself --- Really !!!

"You can not satisfy each and every person in your life at the same time. Decide who is important to you and how much importance do you want to give to his/her thoughts."

I am saying above lines in the context of problem arising for a person due to his/her social group. Today when we have to work in teams, have to be a "good" social human being, it becomes very important what others think for us because on that our reputation, image, synchronisation with others depends.

Many people get worried if others think negatively for them. They try to change their way of doing things and if that does not work then they try to change themselves. But problem becomes more complex when that also does not work. But do we really need to change ourselves just because what others think of us. Can one change himself/herself according to what every other person think about him/her.

I don't think so. Every person is different from every other person and so is their perception and thinking. If anything is right for someone that does not mean it will be right for someone else also. If one perceives things from one angle that does not mean other person will also perceive things from same angle.

Same is the case with people. If someone thinks that the person is good that does not means that the other person will also think same. It all depends on how a person evaluates other person depending on his perceptions, values, environment, experiences etc.Therefore you can not satisfy each and every person at the same time in your life. So changing your behaviour or yourself will make one group happy but another group will become unhappy.

But does that means you should not change yourself even if you are wrong and you are becoming problem to people. No!

It only means that don't change yourself according to what everyone thinks. If you think that the other person does not think that you are right and you should change yourself, then decide -
  • how much important that person is for you
  • how much important is his/her thoughts for you
  • is you behavior causing problem to your near and dear ones
  • is changing your behaviour will really improve you.

if the person is very important for you and you don't want to cause any trouble to him/her because of your behaviour then change yourself. If many people are dissatisfied with you then may be something is really wrong and change yourself. And think before changing yourself that will this change really improve you or its just like switching from one mode to another mode to satisfy another section of people. Also, if you are changing yourself then that change should be real, not cosmetic or temporary.

So decide whether there is really a need for change in you. But while taking any decision give a thought to this also -

"Do not choose for others what you don't want for yourself."

It means, change or don't change yourself, but do not behave with others in the way you don't want to behave with you. If you are behaving in the way you don't want they should behave with you then change yourself NOW!!!