Monday, March 3, 2008

हमारा आज ...

2008 अभी शुरू ही हुआ है ... 21 वी शताब्दी की शुरुआत ही है ... 21 वी शताब्दी जब सब कुछ बदल जायेगा ... एक खुशहाल दुनिया जहाँ चारो तरफ़ सुख-शांति होगी ... 2010 तक हम ये कर देंगे ... 2015 तक ये हो जायेगा ... 2020 तक दुनिया बदल जायेगी .... ऐसे कितने दावे, वादे किए गए थे/है। कितने सपने देखे लोगो ने 21 वी सदी के लिए। ऐसा लगा सुनकर की 21 वी सदी आते ही चमत्कार होगा और दुनिया मे जितनी भी समस्याएं है सब एक साथ खत्म हो जायेगी।

आज जब 21 वी सदी शुरू हुए 8 साल हो गए है तब एक दिन समाचार पत्र मे दो ख़बर पढी ....

अफ्रीका से छोटे-छोटे बच्चे खरीदकर लंदन लाये जाते है। ये बच्चे बहुत छोटे होते है कभी कभी तो 2-3 साल के। माँ-बाप इन्हे अपनी जरूरते पूरी करने के लिए नही बल्कि इनके सुनहरे भविष्य के लिए इन्हे दलालों के हाथो बेच देते है। उनको क्या पता की जिस कहानी पर विश्वास कर के अपने बच्चो को दलालों के हाथो बेच रहे है वो महज एक कहानी ही है ... हकीकत से कोसो दूर। हकीकत तो ये है की उन बच्चो को लंदन लाकर बड़ा किया जाता है और जब वो 7-8 साल के हो जाते है तो उन्हें काम पर लगा दिया जाता है। 7-8 साल का बच्चा जिसे ख़ुद को सम्हालना नही आता वो दुसरे बच्चे को सम्हाल रहा होता है, जिसे पेट भरने के लिए खाना नही मिलता वो झूठे बर्तन साफ करता है ... और शायद उन बर्तनों मे अपने पेट के लिए खाना और अपना भविष्य तलाश रहा होता है ...

मैंक्सिको के गाँव मे औरतो को नागरिक नही माना जाता, कारण की औरते काम नही करती। सुबह चार बजे उठकर घर के काम मे लग जाना, जंगल जाकर लकडियाँ लाना, खाना बनाना, घर सम्हालना वहाँ के "नागरिको" की नज़र मे काम नही है। और इसलिए महिलाओ को नागरिको के अधिकार वोट करना, चुनाव लड़ना आदि प्राप्त नही है। जब वहाँ एक महिला मेयर चुनाव के लिए खड़ी हुई तो उसका इतना विरोध हुआ की उसे अदालत की शरण लेनी पड़ी।

ऐसी बहुत सी कहानियाँ समाचार पत्र के पन्नों पे यहाँ वहाँ बिखरी हुई मिल जायेगी। ये आम समाचार इतने आम हो चुके है की इन्हे पढ़ना भी अब समय की बर्बादी मानी जाती है। और 21 वी जहाँ जीने के लिए समय नही है वहाँ ऐसी खबरों के बारे मे सोचकर कौन समय बरबाद करने की हिमाकत कर सकता है। पर मुझ से रहा नही गया और मैं इन खबरों के बारे मे सोचने पर मजबूर हो गई।
21 वी सदी - कितनी खुशहाल जहाँ आज भी बच्चो को खुशहाल भविष्य के लिए बेचा जाता है, कितनी खुशियों भरी जहाँ आज भी बच्चो को अपना बचपन बचाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है और अंत मे वो हार जाते है, ख़ुद के पेट पर पट्टी बांधकर झूठे बर्तन माँझते है, जहाँ आज भी महिलाओ को बराबरी का दर्जा पाने के लिए संघर्ष करना पड़ता है। "सामजिक सुरक्षा" इतनी ज्यादा मुहैया करवाई गई है महिलाओ को, की उसी सुरक्षा के नाम पर उन्हें घर से बाहर जाने की इजाज़त नही दी जाती, या जाना भी है तो या तो उनके साथ कोई "नागरिक" होना चाहिए या वो परदे मे होनी चाहिए।

पहली ख़बर दुनिया के विकसित देशो मे से एक देश की राजधानी लंदन से है। जब वहाँ बच्चो को इतनी सुविधाये मुहैया करवाई जाती है तब तो अरब देशो के खेल "ऊंट दौड़" पर तो हमे नाज़ होना चाहिए। बच्चो मे खेल-कूद को बढ़ावा देने के लिए और उनमे से हर प्रकार का भय दूर करने के लिए ही शायद ऊंट दौड़ करवाई जाती है, जिसमे बच्चो को ऊंट से बाँध दिया जाता है। ऊंट दौड़ता है और बच्चा भय से चिल्लाता है जिस से ऊंट और तेज़ दौड़ता है। कभी-कभी बच्चो की मौत भी हो जाती है। अच्छा है जनसंख्या कुछ तो कम होती है।

21 वी शताब्दी ... जहाँ बच्चो को मनोरंजन का साधन, सस्ता मजदूर का दर्जा दिया गया है, जहाँ महिलाओं को नागरिक तो क्या कभी कभी इंसान मानने से भी इनकार किया जाता है ... वाकई मे ज्यादा कुछ नही बदला है पिछली सदी के मुकाबले। अगर कुछ बदला है तो वो है संख्याएँ ... संख्या कितने बच्चे अब भी असुरक्षित है, कितने बच्चो को अब भी जीने के लिए अपने बचपन का गला घोटना पड़ता है, कितनी महिलाओं को सुरक्षित रहने के लिए अब भी चार दिवारी मे रहना पड़ता है ... और ये संख्याएँ हर साल हर सदी बढ़ती ही जा रही है। शायद यही संख्या दुनिया के विकास की कहानी कहती हो...

1 comment:

परमजीत सिहँ बाली said...

स्त्री और बच्चों के लिए आप की संवेदनाएं सचमुच प्रभावित करती हैं।